शहादत को इतना भी ज़लील मत करो कि लोग देश के लिए मरना छोड़ दे।
( मुद्दा )
जवान ..देश के लिए मर मिटने वाले जवान .. वतन पर अपनी जान कुर्बान कर देने वाले जवान ...अपनी खुद की जान दांव पर लगाकर ,हमारी सुरक्षा करने वाले जवान..! इनका त्याग ,इनकी मेहनत ,इनका देश के लिए प्यार शब्दों से कहीं ऊपर है।
पर गौर करने वाली बात यह है कि क्या जब ये जवान शहीद हो जाते हैं ,तब इनके शरीर को तिरंगे में लपेट देने से ,इनके लिए मौन रख लेने से ,इनकी अर्थी को सलामी देने से क्या हमारी या यूं कहिए तो सरकार की जिम्मेदारी पूरी हो जाती है?
हो सकता है कि ऐसा सम्भव है क्योंकि जब यह खबर सुनने को मिले कि शहीद की पत्नी 56 बार सीएम से मिल चुकी है ।और उन्हें तभी कारगिल फंड से रुपए नहीं मिले तो लगता है कि ये जिम्मेदारी नहीं है।
बता दें कि उड़ीसा में हुए नक्सल हमले में सीआरपीएफ की 34वी बटालियन के सागर निवासी सिपाही प्रदीप कुमार लरिया शहीद हो गए थे। घटना 11 अगस्त 2002 की है।केंद्र सरकार ने परिजनों को तत्काल 6.5 लाख रुपए दिए,लेकिन मप्र सरकार से सहायता राशि की उम्मीद में शहीद की 64 वर्षीय बुजुर्ग मां पानबाई अपने दूसरे बेटे प्रमोद के साथ पिछले 14 साल से चक्कर काट रही है। वहीं 9 फरवरी 2006 को सीआरपीएफ के सैनिक उमेश शुक्ला दंतेवाड़ा में शहीद हुए थे।परिजनों को केंद्र सरकार ने 7.5 लाख रुपए दिए,लेकिन उनकी अशिक्षित पत्नी सरोज शुक्ला अपने भाई राम उजागर के साथ 56बार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह से मिल चुकी है फिर भी उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ।
हैरानी की बात यह है कि कारगिल युद्ध के तुरंत बाद कारगिल फंड बना ,लेकिन 2013 तक किसी इससे सहायता नहीं मिली।13 साल बाद 19 अगस्त 2013 को निर्देश जारी किए गए 19 मार्च 2016 के बाद शहीदों के परिजनों को सहायता मिलेगी।निर्देश जारी होने से पहले दो प्रकरणों विशेष मानकर सहायता मिली कि जब 2013 के पहले के केसों में पैसा दिया गया तो बाकी को क्यों नहीं??इसके बाद एक एक करके 39 मामले राज्य सैनिक कल्याण बोराड़के पास पहुंचे ,जिसके बाद उन्हें शासन तक पहुंचाया गया ।अब राज्य सरकार दुविधा में है कि करे तो क्या करे!! फिलहाल सचिवालय इसपर टिप्पणी करने से बचता दिखाई पड़ रहा है।
बात यह कि चुप्पी कब तक रहेगी ? जब सवालों का प्रहार होगा तब शासन जवाब देना ही होगा। देखना,यह है कि जवाब कब तलक आता है!
पायल
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