पहल तो कीजिए, सुधर जाएगी शिक्षा व्यवस्था ...तो अमेरिका, जर्मनी से भी आगे निकल जाएगा भारत|
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-प्रशांत रंजन
बिहार की इंटर परीक्षा में सिर्फ 35 प्रतिशत ज ही उतीर्ण हुए। इस पर हाय तौबा मचा हुआ है।
प्रथम दृष्टया लग रहा है कि छात्रों ने ठीक से पढ़ाई नहीं की होगी, लेकिन यह तर्क संपूर्ण रुप से उपयुक्त नहीं है।
मामला कहीं अधीक पेचीदा है। दरअसल यह रिजल्ट नहीं, बल्कि शिक्षा की दुर्गति का उदाहरण है। इसको ऐसे
समझिए। सरकार को रोजगार देने और हमे पाने से मतलब रह गया है। इसीलिए तो ठेके के मजदूर की भांति
बिहार सरकार ने एक दशक पहले ठेके पर शिक्षकों की नियुक्ति कर दी थी। इसमें दो बाते हैं। पहला, यह नियुक्ति
सिर्फ अंकपत्र के आधार पर किए गए थे। और दूसरा, यह जगजाहिर है कि बिहार में मनपसंद अंकपत्र कैसे प्राप्त
किए जाते रहे हैं। अब दोनों को जोड़ दीजिए, तस्वीर स्पष्ट हो जाएगी। सड़ी हुआ बीज जो सरकार ने एक दशक
पहले बोया था, आज हम उसी की खराब फसल काट रहे हैं।
अपने आसपास आप किसी भी पढ़े-लिखे व्यक्ति से पूछ लीजिए कि बी.एड. करने से क्या लाभ होता है?
वह छूटते ही जवाब देगा कि आपको टीचर की नौकरी मिल जाएगी। गौर फरमाईये- नौकरी मिल जाएगी। बीएड
करने से व्यक्ति के अंदर पढ़ाने का तरीका विकसित होता है, इससे किसी को मतलब नहीं है। दरअसल, शिक्षण के
कठिन और नैतिक कार्य को सरकार व लोगों ने महज एक नौकरी मानकर चलने लगे हैं। आप किसी भी प्रतियोगी
छात्र से पूछ लीजिए। किसी की प्राथमिकता में शिक्षक बनना नहीं होता। सिविल सेवा, एसएससी, बैंकिंग, रेलवे
इत्यादि में जब कहीं पर किरानी-चपरासी की भी नौकरी नहीं मिलती, तब जाकर हम बी.एड. कर लेते हैं और शिक्षक
बन जाते हैं। और बी.एड. की डिग्री के लिए कोई तपस्या करने की जरुरत नहीं है। बस आप मान्यताप्राप्त किसी
निजी संस्थान को मुंहमांगा पैसा दीजिए, प्रमाणपत्र आपके घर पहुंच जएगा। यह कड़वा है, लेकिन सत्य है। यह हाल
तो हमने बना रखा है अपने देश के शिक्षा व्यवस्था का। जरा जर्मनी, जापान आदि देशों के शिक्षा व्यवस्था पर नजर
डालें। वहां स्कूल स्तर से ही जो विद्यार्थी सबसे मेधावी होते हैं, उन्हें शिक्षण कार्य के लिए रख लिया जाता है। उन्हें
सबसे अधिक सम्मान ओर वेतन दिया जाता है। वहां का समाज शिक्षण को सबसे प्रतिष्ठित पेशे के रुप में देखता
है। नीतियां बनाते समय सरकार वहां के शिक्षकों से राय लेती है। शिक्षक देश की दशा-दिशा तय करने में निर्णायक
भूमिका निभाते हैं। और हमारे यहां क्या होता है? पहले किसी को भी सड़क से उठाकर शिक्षक बना देते हैं ओर बाद
में जब वह अपने लंबित वेतन के लिए धरना-प्रदर्शन करता है, तो लाठीचार्ज कर उसे खदेड़ दिया जाता है।
यह हुई समस्या पर बात। अब इसके सामाधान की भी चर्चा होनी चाहिए। चुंकि समस्या विकराल है,
इसलिए सामाधान आसान नहीं है। इसमें समय, इच्छाशक्ति और परिश्रम अपेक्षित है। पहला, देश भर के शिक्षा
व्यवस्था का समानीकरण हो, अर्थात पूरे देश में एक बोर्ड़, एक परीक्षा, एक सिलेबस। दूसरा, स्कूली शिक्षकों की
नियुक्ति अखिल भारतीय प्रतियोगिता परीक्षा द्वारा हो, जिसका आयोजन यूपीएससी करे। तीसरा, स्कूल माफियाओं
पर नकेल कसी जाए। निजी स्कूलों में शिक्षण शुल्क की सीमा निर्धारित की जाए, क्योंकि ये स्कूल माफिया, सुविधा
देने के नाम पर अनाप-शनाप पैसे ऐंठते हैं। चैथा, जो सबसे कठिन है। संसद एक कानून पारित करे जिसमें यह
प्रावधान हो कि जो भी सरकारी कर्मचारी हैं, उनके बच्चे सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ें। यहां सरकारी कर्मचारी का
मतलब प्रखण्ड के चपरासी से लेकर भारत सरकार के कैबिनेट सचिव से है। इसकी पूरी आशंका है कि नेता व
अफसर इस कानून को लागू नहीं करना चाहेंगे, लेकिन करना होगा। देश के भविष्य की खातिर। इस संदर्भ में
इलाहाबाद उच्च न्यायालय का एक निर्णय प्रासंगिक है। उसको आधार बनाकर काम बन सकता है। और अंतिम बात
यह कि बच्चों और अभिभावकों को यह समझाने की आवश्यता है कि पढ़ाई परीक्षा पास करने के लिए नहीं, बल्कि
ज्ञान प्राप्त करने लिए करनी चाहिए क्योंकि जीवन में सफल होने के लिए ज्ञान ही काम आता है अंकपत्र नहीं।
लेखक फिल्मकार हैं। अब तक आॅक्सफोर्ड आॅफ ईस्ट, पोस्टेरिक्स, प्रोजेक्ट क्लीन इंडिया, रांग नंबर तथा
’इंडियाः1975’ (निर्माणाधीन है) जैसी फिल्में बना चुके हैं।
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-प्रशांत रंजन
बिहार की इंटर परीक्षा में सिर्फ 35 प्रतिशत ज ही उतीर्ण हुए। इस पर हाय तौबा मचा हुआ है।
प्रथम दृष्टया लग रहा है कि छात्रों ने ठीक से पढ़ाई नहीं की होगी, लेकिन यह तर्क संपूर्ण रुप से उपयुक्त नहीं है।
मामला कहीं अधीक पेचीदा है। दरअसल यह रिजल्ट नहीं, बल्कि शिक्षा की दुर्गति का उदाहरण है। इसको ऐसे
समझिए। सरकार को रोजगार देने और हमे पाने से मतलब रह गया है। इसीलिए तो ठेके के मजदूर की भांति
बिहार सरकार ने एक दशक पहले ठेके पर शिक्षकों की नियुक्ति कर दी थी। इसमें दो बाते हैं। पहला, यह नियुक्ति
सिर्फ अंकपत्र के आधार पर किए गए थे। और दूसरा, यह जगजाहिर है कि बिहार में मनपसंद अंकपत्र कैसे प्राप्त
किए जाते रहे हैं। अब दोनों को जोड़ दीजिए, तस्वीर स्पष्ट हो जाएगी। सड़ी हुआ बीज जो सरकार ने एक दशक
पहले बोया था, आज हम उसी की खराब फसल काट रहे हैं।
अपने आसपास आप किसी भी पढ़े-लिखे व्यक्ति से पूछ लीजिए कि बी.एड. करने से क्या लाभ होता है?
वह छूटते ही जवाब देगा कि आपको टीचर की नौकरी मिल जाएगी। गौर फरमाईये- नौकरी मिल जाएगी। बीएड
करने से व्यक्ति के अंदर पढ़ाने का तरीका विकसित होता है, इससे किसी को मतलब नहीं है। दरअसल, शिक्षण के
कठिन और नैतिक कार्य को सरकार व लोगों ने महज एक नौकरी मानकर चलने लगे हैं। आप किसी भी प्रतियोगी
छात्र से पूछ लीजिए। किसी की प्राथमिकता में शिक्षक बनना नहीं होता। सिविल सेवा, एसएससी, बैंकिंग, रेलवे
इत्यादि में जब कहीं पर किरानी-चपरासी की भी नौकरी नहीं मिलती, तब जाकर हम बी.एड. कर लेते हैं और शिक्षक
बन जाते हैं। और बी.एड. की डिग्री के लिए कोई तपस्या करने की जरुरत नहीं है। बस आप मान्यताप्राप्त किसी
निजी संस्थान को मुंहमांगा पैसा दीजिए, प्रमाणपत्र आपके घर पहुंच जएगा। यह कड़वा है, लेकिन सत्य है। यह हाल
तो हमने बना रखा है अपने देश के शिक्षा व्यवस्था का। जरा जर्मनी, जापान आदि देशों के शिक्षा व्यवस्था पर नजर
डालें। वहां स्कूल स्तर से ही जो विद्यार्थी सबसे मेधावी होते हैं, उन्हें शिक्षण कार्य के लिए रख लिया जाता है। उन्हें
सबसे अधिक सम्मान ओर वेतन दिया जाता है। वहां का समाज शिक्षण को सबसे प्रतिष्ठित पेशे के रुप में देखता
है। नीतियां बनाते समय सरकार वहां के शिक्षकों से राय लेती है। शिक्षक देश की दशा-दिशा तय करने में निर्णायक
भूमिका निभाते हैं। और हमारे यहां क्या होता है? पहले किसी को भी सड़क से उठाकर शिक्षक बना देते हैं ओर बाद
में जब वह अपने लंबित वेतन के लिए धरना-प्रदर्शन करता है, तो लाठीचार्ज कर उसे खदेड़ दिया जाता है।
यह हुई समस्या पर बात। अब इसके सामाधान की भी चर्चा होनी चाहिए। चुंकि समस्या विकराल है,
इसलिए सामाधान आसान नहीं है। इसमें समय, इच्छाशक्ति और परिश्रम अपेक्षित है। पहला, देश भर के शिक्षा
व्यवस्था का समानीकरण हो, अर्थात पूरे देश में एक बोर्ड़, एक परीक्षा, एक सिलेबस। दूसरा, स्कूली शिक्षकों की
नियुक्ति अखिल भारतीय प्रतियोगिता परीक्षा द्वारा हो, जिसका आयोजन यूपीएससी करे। तीसरा, स्कूल माफियाओं
पर नकेल कसी जाए। निजी स्कूलों में शिक्षण शुल्क की सीमा निर्धारित की जाए, क्योंकि ये स्कूल माफिया, सुविधा
देने के नाम पर अनाप-शनाप पैसे ऐंठते हैं। चैथा, जो सबसे कठिन है। संसद एक कानून पारित करे जिसमें यह
प्रावधान हो कि जो भी सरकारी कर्मचारी हैं, उनके बच्चे सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ें। यहां सरकारी कर्मचारी का
मतलब प्रखण्ड के चपरासी से लेकर भारत सरकार के कैबिनेट सचिव से है। इसकी पूरी आशंका है कि नेता व
अफसर इस कानून को लागू नहीं करना चाहेंगे, लेकिन करना होगा। देश के भविष्य की खातिर। इस संदर्भ में
इलाहाबाद उच्च न्यायालय का एक निर्णय प्रासंगिक है। उसको आधार बनाकर काम बन सकता है। और अंतिम बात
यह कि बच्चों और अभिभावकों को यह समझाने की आवश्यता है कि पढ़ाई परीक्षा पास करने के लिए नहीं, बल्कि
ज्ञान प्राप्त करने लिए करनी चाहिए क्योंकि जीवन में सफल होने के लिए ज्ञान ही काम आता है अंकपत्र नहीं।
लेखक फिल्मकार हैं। अब तक आॅक्सफोर्ड आॅफ ईस्ट, पोस्टेरिक्स, प्रोजेक्ट क्लीन इंडिया, रांग नंबर तथा
’इंडियाः1975’ (निर्माणाधीन है) जैसी फिल्में बना चुके हैं।
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