घर लौट रहें नीतीश बाबू ?
(हस्तिनापुर के बोल)
भारत के नागरिकों को दो चीजों में सबसे ज्यादा रूचि रहती है। पहला है क्रिकेट और दूसरा है राजनीति। भारत में ये दो चीजें ऐसी हैं जो सालों भर कहीं न कहीं चर्चा का केंद्र बना रहता है। अगर क्रिकेट को देखें तो हाल ही आइपीएल का बुखार लोगों से पूरी तरह उतरा नहीं कि चैंपियन ट्राॅफी का बुखार वायरल होने लगा। जब चैंपियन ट्राफी खत्म होगा तो कोई और टूर्नामेंट शुरू हो जायेगा। उसी तरह अगर राजनीति में देखें तो भारत में लगभग हर साल कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं और लोगों की रूचि इसमें बनी रहती है। अगर बात बिहार की राजनीति की हो तो क्या कहना......? वर्तमान में रजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह का भी भ्रम 2015 के विधान सभा चुनाव बिहार ने ही तोड़ा। यह प्रदेश सत्ता को पलटने की क्षमता रखता है। जेपी आंदोलन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। लेकिन 2015 के बाद पूरे देश की नजर यहां कुछ ज्यादा ही टिकी रहती है। वजह है नदी के दो किनारे (लालू-नीतीश) का एक हो जाना। यूं तो राजनीति में ऐसा होना आम बात है लेकिन बिहार का ‘आम’ भी दुनिया के लिए खास होता है।
जब से बिहार में महागठबंधन की सरकार बनी है तब से यह लालू-नीतीश की जोड़ी काफी चर्चा में रही है। यूं तो इस महागठबंधन में कांग्रेस भी शामिल है लेकिन वर्तमान में बिहार में कांग्रेस सिर्फ शो-पीस की तरह ही है। यह जोड़ी शुरू से ही आपसी टकराव को लेकर विवादों में रही है। सत्ता में आने के कुछ दिन बाद से ही दोनों पक्षों के कुछ प्रतिष्ठित नेता एक-दूसरे के ऊपर कटाक्ष करते नजर आते रहे। नीतीश कुमार का लालू प्रसाद के साथ अपना निजी फैसला था, इसलिए उन्होंने अपने फैसले को सही साबित करने के लिए हर संभव कोशिश करते रहे। उन्होंने लालू प्रसाद यादव से काफी हद तक समझौता भी किया। उनका यह समझौता कई जगहों पर दिखा भी। नीतीश कुमार की कर्मठ नेता की जो छवि एनडीए गठबंधन में थी वो शायद महागठबंधन में नहीं दिख रही है। इस शासनकाल में शराबबंदी ही एकमात्र काम जनता के सामने आ पा रहा है। नीतीश कुमार ने जिस सोच के साथ खुद को एनडीए से अलग किया और महागठबंधन के साथ मिले, उनकी वह सोच शायद अब कामयाब होते नहीं दिख रही है। भले ही वो अपने आप को देश के भावी प्रधानमंत्री पद के होड़ से खुद को अलग बताते हों लेकिन एनडीए के साथ गठबंधन तोड़ने की उनकी सोच यह साफ दर्शाता है कि वो खुद को क्षेत्रीय नेता से परे राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे। लेकिन वर्तमान हालात कुछ और ही बयां कर रही है।
राजनीतिक कैल्कुलेशन में माहिर नीतीश कुमार का कैल्कुलेशन नोटबंदी के बाद गड़बड़ाता दिख रहा है। और वो इस बात को समझ भी चुके हैं। नोटबंदी के बाद ममता बनर्जी ने खुद को जिस तरह से पेश किया इससे नीतीश कुमार यह समझ चुके थे कि प्रधानमंत्री की उनकी यह राह आसान नहीं होगी। इसलिए वे भी अब शायद महागठबंधन से खुश नहीं दिख रहे हैं। अगर नोटबंदी की बात की जाए तो केंद्र के इस फैसले के खिलाफ लालू प्रसाद, ममता बनर्जी, मुलायम सिंह यादव व अन्य नेता इसके खिलाफ मोर्चा खोलते दिखे। जबकि नीतीश कुमार नोटबंदी के पक्ष में थे। पटना में सिख के दशवें गुरू गुरूगोविंद सिंह के जयंती पर भी नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक दूसरे की तारीफ करते पाये गये। पुरानी बातों को अगर नजरअंदाज कर अगर वर्तमान गतिविधि पर नजर डालें तो भी नीतीश कुमार एनडीए विरोधी सब दलों से खुद को अलग दिखा रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव के सिलसिले में सोनिया गांधी ने 17 एनडीए विरोधी दलों की एक साथ बैठक बुलायी। यह बैठक विपक्षी महागठबंधन की थी। ऐसा कयास लगाये जा रहे हैं इस बैठक के बाद विपक्षी महागठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी होगी। हालांकि यह अभी तक साफ नहीं हुआ है। इस बैठक में नीतीश कुमार को छोड़कर सभी विपक्षी दल के प्रमुख नेता शामिल हुए। वहीं दूसरी तरफ 2012 में एनडीए द्वारा आमंत्रित भोज को ठुकराने वाले नीतीश कुमार ने शनिवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा आमंत्रित भोज में बेझिझक हिस्सा लिया। चूंकि नीतीश कुमार का एनडीए के साथ वापस मिलने का फैसला इतना आसान नहीं होगा। क्योंकि जिस तरह से उन्होंने 2012 में एनडीए और प्रधानमंत्री को अपना निशाना बनाया था अब उसी के साथ जाने पर वे भी एनडीए विरोधी दलों के निशाने पर होंगे। इसलिए जब नीतीश कुमार से इस विषय पर पूछा गया तो उन्होंने इस बात को सिरे से नकार दिया। उन्होंने कहा कि वो बैठक के विषय पर पहले ही सोनिया गांधी से मिल चुके हैं और उनकी बात हो चुकी है। इसलिए इस बैठक में जाना कोई जरूरी नहीं हैं। वहीं पीएम से मिलने के बात पर उन्होंने गंगा स्वच्छा अभियान के तहत गंगा माता का सहारा लिया। अब देखना यह है कि वे खुले तौर पर कब एनडीए के साथ आते हैं। क्योंकि नीतीश कुमार का इस तरह से महागठबंधन से दूरी और एनडीए की तरफ झुकाव से यह अंदाजा बड़े आसानी से लगाया जा सकता है कि महागठबंधन की दरार अब गहरी होती जा रही है।
वहीं एनडीए का नीतीश कुमार में रूचि से यह साफ पता चलता है कि उन्हें भी बिहार में अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए एक साथी की जरूरत है और वह खंभा उनके पुराने साथी नीतीश कुमार से बेहतर कोई नहीं हो सकता है। वहीं दूसरी तरफ नीतीश कुमार भी शायद यह समझ चुके हैं कि राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरने के लिए उन्हें पहले एक अच्छी छवि वाला क्षेत्रीय नेता बने रहना होगा, जो महागठबंधन के साथ रहकर शायद संभव नहीं।
असली नेता वो है जो फेका हुआ थूक चाटने मे निपुण हो ।
ReplyDeleteऔर बिहार कि राजनीति मे नीतीश से अच्छा ये काम कौन कर सकता है,
बिहारी मे कहा जाए तो वो पुराने थूकचटा हैं।