बाहुबलीः विश्व सिनेमा का भारतीय संस्करण|
(फ़िल्मची)
सिनेमा का जन्म हुए लगभग सवा सौ वर्ष हुए हैं। इन वर्षों में विभिन्न देशों में अब तक लाखों फिल्में बन चुकी हैं, जिनमें गिनती की चंद फिल्में हैं जिन्हें कालजयी होने का दर्जा प्राप्त है। एस.एस. राजामौली की बाहुबली भी उसकी विशेष सूची में शामिल हो गई है। वैश्विक लोकमानस के अंतस में समा जाने के कारण उसे यह विशेष सम्मान मिला है। सिनेमा का सफर फ्रांस से शुरु हुआ। कालांतर में यह अमेरिका, जर्मनी, इटली, जापान, ईरान, भारत में पैर पसारने लगा। इन देशों में समय-समय पर इतिहास रचने या कीर्तीमान स्थापित करने वाली फिल्में बनी हैं जिन्हें महान, कालजयी, क्लासिक आदि विशेषणों से नवाजा जाता है। यह दो स्तरों पर हो सकता है। एक तो यह कि फिल्म विशेष अपने सिनेमाई क्राफ्ट के स्तर पर गुणवत्ता धारण किए हो, तथा दूसरे, वह लोक के हृदय में स्थायी रुप से अपनी जगह बना ले। बाहुबली दोनों स्तर पर खरी उतरती है। तकनीक के स्तर पर देखें तो इसके वीएफएक्स ने वह किया है, जो हाॅलीवुड वाले करते है, कहीं-कहीं तो यह हाॅलीवुड की फिल्मों से भी आगे लगती है। और लोकप्रियता। इसका अंदाजा तो इस बात से लगाया जा सकता है कि जुलाई 2015 में इसके प्रथम भाग के रिलीज के बाद से अप्रैल 2017 में दूसरे भाग के आने तक भारत के सोशल मीडिया में अगर कोई एक प्रश्न सबसे अधिक चर्चा में रहा तो वह था- कट्टप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा? बाहुबली के प्रति दिवानगी का आलम ऐसा रहा कि इस प्रश्न को इतनी बार सर्च किया गया कि गुगल कंपनी ने अपने कर्मचारियों प्रश्न का संतोषजनक उत्तर ढूंढने का टास्क दे दिया। यह और बात है कि प्रश्न का जवाब सिर्फ और सिर्फ इसके दूसरे भाग में है।
सिनेमा का जन्म हुए लगभग सवा सौ वर्ष हुए हैं। इन वर्षों में विभिन्न देशों में अब तक लाखों फिल्में बन चुकी हैं, जिनमें गिनती की चंद फिल्में हैं जिन्हें कालजयी होने का दर्जा प्राप्त है। एस.एस. राजामौली की बाहुबली भी उसकी विशेष सूची में शामिल हो गई है। वैश्विक लोकमानस के अंतस में समा जाने के कारण उसे यह विशेष सम्मान मिला है। सिनेमा का सफर फ्रांस से शुरु हुआ। कालांतर में यह अमेरिका, जर्मनी, इटली, जापान, ईरान, भारत में पैर पसारने लगा। इन देशों में समय-समय पर इतिहास रचने या कीर्तीमान स्थापित करने वाली फिल्में बनी हैं जिन्हें महान, कालजयी, क्लासिक आदि विशेषणों से नवाजा जाता है। यह दो स्तरों पर हो सकता है। एक तो यह कि फिल्म विशेष अपने सिनेमाई क्राफ्ट के स्तर पर गुणवत्ता धारण किए हो, तथा दूसरे, वह लोक के हृदय में स्थायी रुप से अपनी जगह बना ले। बाहुबली दोनों स्तर पर खरी उतरती है। तकनीक के स्तर पर देखें तो इसके वीएफएक्स ने वह किया है, जो हाॅलीवुड वाले करते है, कहीं-कहीं तो यह हाॅलीवुड की फिल्मों से भी आगे लगती है। और लोकप्रियता। इसका अंदाजा तो इस बात से लगाया जा सकता है कि जुलाई 2015 में इसके प्रथम भाग के रिलीज के बाद से अप्रैल 2017 में दूसरे भाग के आने तक भारत के सोशल मीडिया में अगर कोई एक प्रश्न सबसे अधिक चर्चा में रहा तो वह था- कट्टप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा? बाहुबली के प्रति दिवानगी का आलम ऐसा रहा कि इस प्रश्न को इतनी बार सर्च किया गया कि गुगल कंपनी ने अपने कर्मचारियों प्रश्न का संतोषजनक उत्तर ढूंढने का टास्क दे दिया। यह और बात है कि प्रश्न का जवाब सिर्फ और सिर्फ इसके दूसरे भाग में है।
करीब दो वर्ष पूर्व एस.एस. राजामौली ने अपने पिता के. विजयेन्द्र प्रसाद द्वारा लिखित कहानी पर ’बाहुबली- दी बिगिनिंग’ निर्देशित की थी। इस साल अप्रैल के अंत में इसकी दूसरी किस्त ’बाहुबली- दी कन्क्लूजन’ रिलीज हुई है। इसको पिछले भाग का सीक्वल कहना तर्कसंगत नहीं होगा क्योंकि कथानक एवं निर्माण के स्तर पर यह एक ही फिल्म है, जिसे वृहद आकार के कारण दो भागों में रिलीज किया गया। यह सीधे-साधे सुविधा के सिद्धांत का मामला है। इसके किसी एक भाग को देखकर आप पूरी कथा नहीं समझ सकते, इसलिए बाहुबली की चर्चा करते समय समेकित रुप से इसके दोनों भाग की चर्चा की जानी चाहिए।
कथानक के स्तर पर बाहुबली एक प्रतिशोध कथा है, जिसे प्राचीन भारतवर्ष के कालखण्ड में रचा गया है। ऐसे कथानक और कालखण्ड पर पहले भी फिल्में बनी, लेकिन यह बाहुबली का बेजोड़ प्रस्तुतीकरण है जो इसे ऐतिहासिक बनाती है। इस फिल्म को देखने के लिए लोगों में इतनी बेचैनी मैंने पहले कभी नहीं देखी। रिलीज के दो सप्ताह बाद तक सिनेमाघर ठसाठस भरे हैं। टिकट खिड़की पर लगी लंबी सी लाईन छोटी होने का नाम नहीं ले रही है। बाहुबली ने दूरदर्शन के उस कालखण्ड की याद ताजा कर दी जब रामायण-महाभारत देखने के लिए जनसैलाब उमड़ता था।
आखिर बाहुबली को लेकर इतनी ललक तथा आकर्षण क्यों है? इसका साधारण उत्तर है कि बाहुबली में लोगों अपनी जड़ें देखने को मिली हैं। बच्चों एवं युवाओं को पहली बार को फिल्म नसीब हुई है, जिसमें हाॅलीवुड का रोमांच तो है ही, साथ ही वह अपने जैसा लगता है। उसका नायक अपने पूर्वज की याद दिलाता है, न कि आधुनिक विज्ञान की मदद से गढे गए आयरनमैन, स्पाइडरमैन जैसे किसी कृत्रिम पात्र का। बाहुबली को पसंद किए जाने के कई कारण हैं। एक है उसका अखिल भारतीय होना। कथानक में क्षेत्र या भाषा के प्रति कोई आग्रह नहीं है। जो भी तत्व दिखाए गए हैं, वे संपूर्ण भारत में व्याप्त हैं।
एक तरफ बाहुबली ने सिने प्रेमियों को उत्सव मनाने का अवसर हैं, तो दूसरी ओर इसने हिन्दी फिल्मकारों के सामने एक बड़ी लकीर खीच दी है। हाॅलीवुड का काॅपी-पेस्ट तथा फूहड़ता, शोर-शराबा, उपभोगवाद, भारतीय कथानक का पाश्चात्यिकरण को ही सफलता का फाॅमूला मान बैठे फिल्मकारों के बाहुबली एक नसीहत है। फिल्म में हमें राजमाता शिवगामी एवं देवसेना का सशक्त किरदार मिलता है। यहां महिलाएं अन्य फिल्में की भांति महज शो पीस या उपभोग की वस्तु नहीं है, बल्कि यह हमें हमारे वैदिक वाक्य- यत्र नारयेसु पूज्यंते तत्र रमंते देवता, का स्मरण कराता है। आज जेंडर इक्विटि का ढोल पीटने वालों को भारतीय वांग्मय से सीख लेनी चाहिए। फिल्म में पश्चिम की चकाचैंध नहीं, वैभवशाली भारतवर्ष की झलक मिलती है। संगीत के नाम पर पाॅप-रैप का शोर नहीं, बल्कि वैदिक मंत्रोचारण है, नादस्वरं है, रणदुदुंभी है। डांस के नाम पर अश्लील शारीरिक मुद्राएं नहीं, बल्कि अधिकतम संतुलन कौशल की मांग करने वाले विशुद्ध वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित भारतनाट्टयम पर थिरकती नृत्यांगना है। सुखद आश्चर्य है कि युवा पीढ़ी इसे पसंद कर रही है। इसमें आधुनिक हथियारों से रक्तपात नहीं, वरन् विराट भारत की प्राचीन युद्धशैली है, जहां परेड एवं युद्ध में आदेश देने के लिए संस्कृत श्लोक का इस्तेमाल है। इसमें नग्नता नहीं, पुरुषार्थ है। बाहुबली में हमें धोती पहना बलशाली एवं सर्वगुण संपन्न नायक दिखता है। इसमें शिवलिंग है, यज्ञ है, अनुष्ठान है, जटा है, जनेऊ है, मंत्र है, अग्निपूजा है, शस्त्र-शास्त्र है, ग्राम है, नदियां हैं, पर्वत है, वचन की प्रतिबद्धता है, कृतज्ञता का महत्व है, प्रेम का सम्मान है, शासक को शासित की चिंता है। इन्हीं छोटे-छोटे बिंदुओं को एक करने पर भारतवर्ष आकार लेता है। बाहुबली में यह सब है। और यही कारण है कि इस फिल्म को देखने के लिए तीन पीढ़ी एक साथ सिनेमाघर का रुख कर रहे हैं। दादा-पोता, बाप-बेटी, मां-बेटा सब साथ जाकर भारतीय सिनेमा के ऐतिहासिक क्षण का साक्षी बन रहे हैं। फिल्म देखते वक्त युवा पीढ़ी पहली बार भारत भूमि में जन्म लेने पर गर्व हो रहा है। यह बहुत महत्वपूर्ण है।
ये सारी बातें जो बाहुबली को महान फिल्म बना रहीं हैं, कुछ लोगों को इन्हीं बातों से तकलीफ भी है। ध्यान दीजिए। जो लोग अब तक घोर फंतासी एवं क्रूर हिंसात्मक फिल्में बनाने वाले हाॅलीवुड के पीछे पागल रहते थे, वहीं लोग बाहुबली को फंतासी एवं हिंसात्मक बताकर उसकी चमक धूमिल करने का प्रयास कर रहे हैं। चूंकि इसमें पश्चिम की छौंक नहीं है; भारत को गरीब, पीड़ित, सपेरों का देश नहीं बताया गया है, भारत को विदेश बनाने की वकालत नहीं है, प्राचीन संस्कृति का मजाक नहीं उड़ाया गया है, किसी धोती वाले को अपमानित नहीं किया गया है, नग्नता को महिमामंडित नहीं किया गया है, न तो संस्कृत को आउटडेटेड और न ही अंग्रेजी को आवश्यक बताया गया है, इसीलिए बाहुबली कुछ लोगों की आंखों में खटक रही है। जाहिर सी बात है। जिन्हें भारतीयता से ही समस्या हो, उन्हें भला बाहुबली कैसे अच्छी लग सकती है।
एस.एस. राजामौली एवं उनकी पूरी टीम बाधाई के साथ-साथ धन्यवाद के भी पात्र हैं कि उन्होंने विशुद्ध भारतीय शैली में मनोरंजन की रचना की है। उम्मीद है कि अब हमारे फिल्मकार अच्छी कहानी के लिए हाॅलीवुड की नकल करने की बजाए, अपनी जड़ों को तलाशना पसंद करेंगे। यही बाहुबली की सफलता है।
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