सिर्फ़ देखिये हिंदी मीडियम, सोचेंगे तो सिर फट जायेगा।
(फ़िल्मची)
पिछले तीन सालों में कई फिल्में देख डाली। कुछ ही गिनी चुनी हॉल में देखी। क्योंकि कभी अपना पैसा ख़र्च नहीं किया। पहली बार पाप के साथ वांटेड देखी थी। तब ना तो फ़िल्मो की समझ थी ना समाज की। बस यहाँ वहाँ घूमकर मंचों पर वीर रस की कविताएं और राष्ट्रवाद से प्रेरित भाषण बका करता था। एक बार तथ्यों को रट कर , पूरी रात सीसे के सामने बोल कर अगले दिन किसी अख़बार के लोकल न्यूज़ वाले पन्ने की ब्रीफ ख़बर में गलत नाम के साथ नाम छपा। पन्ना अब भी डायरी की धूल खा रही है। घर पर नहीं हूं वर्ना फ़ोटो खीच कर चस्पा कर देता।
आज एक बार फिर लड़ा और सचिन जैसे नव निर्मित भगवान को ठुकरा कर पीवीआर का सफ़र तय किया। जब सिनेमा हॉल में कदम रखा तो जुबाँ पर अपनी पूरी औकात वाली अंग्रेजी और कुर्ते , हैट की स्व में डूबा था। फ़िल्म ख़त्म होते तक सब कुछ उतर चूका था। अकेला नहीं था पर ख़ामोश था, अपने बगल वाले से यह कह कर मुद्दे को उड़ा दिया कि देखो मेरी पसंद कितना लाजवाब है। कितनी लल्लन टॉप मूवी थी। मैं हिंदी मीडियम के उस कलाकार की तरह था जिसकी पत्नी उसे ताली नहीं बजाने देती। फ़िल्म तो हिलाती है बस भाषा को लेकर ही नहीं बल्कि उस पूरे हिस्से के साथ जो मेरे जैसा रोज कामोट पर बैठ कर बदलाव के बातों को अंगुलियों से पीट कर फ़ेसबुकिया या ट्वीटिया देता है। पर उसके पास इस बात की हिम्मत नहीं की अपने भाई को सीधी पाई को हिंदी में स्ट्रेट लाइन बोलने से रोक ले। फ़िल्म उन सभी को जीती है जो या तो दिल्ली के या फिर किसी मंदिर या पाठशाल से निकला हो। सेंट वाले का मैं नहीं बता सकता हूं क्योंकि अनुभव नहीं है। फ़िल्म के आखिर हिस्से का किरदार सिर्फ़ मैं नहीं हूँ बल्कि वे सभी हैं जो मेरे पीछे और बगल थे। क्योंकि वे हस भी उन्हीं पंचों पर थे जो भाषा के माखौल पर गढ़ी गई थी। जब ख़ानदानी गरीब श्याम गाड़ी के आगे कूद कर पैसा के लिए समझौता करता है तब आवाज़ मेरे कानों में गूंजी थी कि 'ये ऐसा ही करते हैं'। ये शब्द सहानुभूति के नहीं बल्कि तंज के थे। मैं भी ये बातें कहाँ सोच रहा हूं ,पीवीआर के एसी वाले सीट पर बैठ कर। फ़िल्म को सिर्फ़ भाषा पर आंकना गलत है। यह तो वर्ग और समाज के मुँह पर श्रीमान के साथ बीप बीप है। यह बताता है कि कैसे आप एक हिस्से में जुड़ने के लिए ख़ुद को अस्मिता से दूर कर लेता है। कैसे लोगों ने उम्मीदें छोड़ दी बदलाव की। कैसे जीने का गुण सिखाने वाली शिक्षा ने जीना हराम कर दिया है। कैसे शिक्षा को आसान बनाने के नाम पर बच्चों को झोंक दिया गया है। शायद वो छड़ी से मार खाना आसान था। सही और गलत नहीं ख़ुद में झांकने का मौका देती है।
आख़िर में उस ज़ालिम सीन पर ज़रूर लौट कर आऊँगा जिसमें इरफान खान अकेले हैं। लोग ग़लत को इसलिए स्वीकार लेते हैं क्योंकि उनका फ़ायदा उसी में है। शायद इरफान ( बत्रा) को बगावत नहीं करनी चाहिए। क्योंकि मुझे में ये हिम्मत नहीं हैं , अगर आप में है तो समर्थन कर दें। यह हिस्सा पिंक के बच्चन साहब के 'ना' वाले संवाद से कहीं कम नहीं हैं। हाँ ,फ़िल्म में दीपक डोबरियाल और इरफान ने पूरा कहर बरपाया है। सबसे ज़्यादा तारीफ़ उस लेखक है की बनती है जो कहानी को जीना सीखा है। नाम के लिये थोड़ी मेहनत है कर लीजिए। फ़िल्म निर्माताओं को ज़रूर तारीफ़ करनी चाहिए जो इतने अच्छे मुद्दों पर लगातार फिल्में बना रहें हैं। बाकी आप बतौर कॉमेडी भी इस फ़िल्म को देख सकते हैं।
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