कहानी उस लड़की का जिसे कांशीराम ने रातों रात स्टार बना दिया। दलित राजनीति भाग -2

(हस्तिनापुर के बोल)



दलितो को राजनीति में  भागीदारी दिलाने के बाद अम्बेडकर और कांशीराम ने दलितों के लिए अपना सर्वस्व  न्योछावर  कर ही दिया था । परंतु संघर्ष अभी और बाकी था । इन दोनों के बाद कमान संभाली थी  मायावती  ने । बात 1977 की है जब उन्हें जनता पार्टी के मंच पर भाषण देने का मौका मिला।अपने ओजस्वी भाषण से वह रातों रात स्टार बन गयी।कौन जानता था कि बीए की पढ़ाई के बाद आई ए एस बनने का लक्ष्य  रखने वाली मायावती दलित समाज के उत्थान और विकास के लिए राजनीति में प्रवेश कर जाएंगी। उनका राजनीति में आना कोई आसान बात नहीं थी। राजनीति में उनके प्रवेश का आधार केवल उनकी बुद्धि और वाक पटुता थी । मायावती मात्र 21 साल की थी जब अपने ओजस्वी भाषण से उन्होंने बड़े बड़े नेताओं को चुप करा दिया था ,जो पिछड़ी जाति को हरिजन पुकारते थे। मायावती ही वो  महिला थी जिन्होंने खुद को अनुसूचित जाति की महिला  कहलाना पसंद किया ।

ये तो सबको पता ही है कि  कांशीराम ने ही उत्तर भारत की राजनीति में उनको आगे बढ़ाया ।आजतक ये स्पष्ट नहीं हो पाया है कि कांशीराम ने मायावती को ही अपना उत्तराधिकारी क्यों चुना। लेकिन हम ये अंदाजा लगा सकते हैं कि पथप्रदर्शक होने के नाते  कांशीराम ने मायावती में दलितों का हित सोचने वाला दूत अवश्य देखा होगा। एक गौर करने वाली बात ये भी है कि  बीएसपी के  संस्थापक कांशीराम के जमाने में पार्टी मध्य प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र और दिल्ली जैसे देश के कई इलाकों में मौजूदगी रखती थी। लेकिन मायावती के आने के बाद बीएसपी मुख्य तौर पर उत्तर प्रदेश की पार्टी हो गई। 2007 के चुनाव में मिले बहुमत के बाद किसी ने अन्य राज्यों में पार्टी के सिमटते आधार पर कोई ध्यान नहीं दिया।लेकिन अब उत्तर प्रदेश में भी बीएसपी के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।खैर , मायावती ने उत्तर प्रदेश में दलितों को तो मजबूत बनाया ही ,साथ ही साथ दूसरे राज्यों में भी वोट शेयर किया । उत्तर प्रदेश में दलितों की राजनीति काफी सक्रिय रही है । उनकी सक्रियता का प्रत्यक्ष प्रमाण मायावती का 3 बार मुख्यमंत्री निर्वाचित होना है। मायावती पर अपना विश्वास रखना दलितों के लिए काफी आसान रहा  था ।लेकिन बाद में सत्ता और शक्ति पाने के बाद मायावती ही बसपा की एक मात्र मालिक प्रतीत होती है। उसमे दूसरा कोई नेता अहमियत नहीं रखता है । बाकी पार्टियों में भी राष्ट्रीय अध्यक्ष के अलावा कोई अन्य का वजूद बचा है । बदलते वर्षों में , दलितों की राजनीति में एक नया मोड़ आ गया है , जिसमें घोर व्यक्तिवाद और अधिनायकवाद प्रमुख हो गए हैं ।

 इसके साथ साथ अवसरवादिता भी उनपर हावी हो रही है । जिसका सबसे बड़ा उदाहरण बसपा द्वारा भाजपा से किया गया गठबंधन है । अगर उत्तर प्रदेश में बसपा है तो , महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया सक्रिय है। यह वही पार्टी है जिसका जिक्र इस अंक के भाग 1 में किया गया है। यह पार्टी अम्बेडकर के सतत प्रयास का परिणाम है ,लेकिन अब पार्टी में दरारों की दस्तक हो चुकी है। यह 3 गुटों में विभाजित है और इसका तीसरा गुट हमेशा से कांग्रेस के साथ रहा है। रिपब्लिकन पार्टी अब पूर्णतया रिपब्लिकन नहीं रही है और यही कारण है कि दलित राष्ट्रीय राजनीति में केंद्र में न होकर हाशिये पर है । दलित अब केवल वोट बैंक बन कर रह गये हैं , जबकि उनके मुद्दे गरीबी , भूमिहीनता, बेरोजगारी, अशिक्षा , उत्पीड़न और सामाजिक तिरस्कार किसी भी पार्टी के एजेंडे में नहीं है । वर्तमान दलित राजनीति अपने  जनक डॉ भीमराव अम्बेडकर की विचारधारा , आदर्शों और लक्ष्यों से पूरी तरह भटक चुकी है । अब इसे रैडिकल विकल्प की जरूरत है । उसके बाद ही यह सम्भव है कि लखनऊ में दलितों के दूतों की लगी मूर्ति सदैव के लिए अमर हो पायेगी अन्यथा वे मूर्तियां केवल पार्क की शोभा बढ़ाने वाली मूर्ति मात्र ही रह जायेगी।  

-मोनाली ठाकुर
--कॉर्टून- राजेश चौहान

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