हमहू अब पेशेवर हैं ।
(विचार अड्डा)
तो क्या सचमुच कुछ शहरों में खबरों के लिए जिंदा जलाए जाते हैं लोग । पटियाला, गया और बनारस ये वो शहर हैं जीन पर ये आरोप लगते हैं। ये सवाल ये वो हर व्यक्ति पूछता है जो मीडिया को परोपकारी और चौथा खंबा समझने में यकीन रखता है। हम सरसरी निगाह डाल लें कि खबरिया चैनलों के आने के बाद खबरों के लिए क्या-क्या किया गया है। लेकिन TRP ने उन्हें जब से दौड़ाना शुरू किया पता नहीं वे किस किस घर मे घुसने लगें। गौर करने वाली बात ये है कि 80 के बाद सामाजिक दायित्व से मुक्त होने के तर्क तैयार किए जाने लगा। यह धुन एक तर्क के रूप मे हमारे साथ लग गया की पत्रकारों को पेशेवर होना चाहिए। ऐसे पेशेवर कामयाबी का आधार बन जाते हैं........ । बात यहाँ तक तो समझ में आती है सामाजिक जिम्मेवारी की बोझ मे जीने वाला मिडिया कर्मी नए दौर में पेशेवर हो गया। जिन्दा लोगों को जलते,मरते, डूबते भूख से तड़पते, बलात्कार होते देखने लगा। लेकिन क्या इसे यहीं रूक जाना था? हमारे एक मीडिया कर्मी की कविता याद आती है-
देखो लगा है बाजार पत्रकार का ;
शो है चलने वाला रवीश कुमार का
हो गया गोरखधंधा ये भ्रष्टाचार का
हालत पे तरस आ रहा है इस बाजार का |
तय यही करेंगे कि लड़ाई कम करेगा देश
पूछते सवाल उनसे जिनके मन मे हैं क्लेश
विषय बन गया है ये खुद विचार का
कर रहे ये लोग सत्यनाश हर आकार का
चमचा जो बन गए अब वो राष्ट्रवादी हैं
जो पूछते सवाल कड़े वो बन गए आतंकवादी है।
राज्यसभा जाता कोई कोई पदम पाता है
राजनीति से बड़ा पुराना इनका नाता हैं
निधि चौबे
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