एक जिसकी मूर्ति लखनऊ में लगी है और दूसरे के लोग काटे जा रहें हैं : दलित राजनीति भाग 1
(हस्तिनापुर के बोल)
दलित वर्ग , हज़ारों वर्षों से ऐतिहासिक मान्यताओं के तले दबी समाज की वो पिछड़ी जातियां जिनके हिस्से में केवल जूठन, सेवन और शोषण रहा है ।भारतीय समाज मे उनका सफर काफी मुश्किलो भरा रहा है ।यही वो जाति हैं जिसे भारतीय संविधान में अनुसूचित जाति कहा गया है।
दलितों के इस कठिन यात्रा में जब डॉ भीमराव अंबेडकर का आगमन हुआ तो उन्हें थोड़ा सम्मान मिला ।अम्बेडकर ने सबसे पहले देश मे दलितों के लिए सामाजिक , राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की मांग की । अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉ भीभराव अम्बेडकर ने वकालत के साथ साथ अछूतों पर होने वाले अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाना शुरू किया । 1927 में उन्होंने 'बहिष्कृत भारत' नामक पत्रिका का प्रकाशन करके अछूतों में स्वाभिमान और जागरूकता का अद्भुत संचार किया । इसी वर्ष वे 1927 में मुम्बई विधान परिषद के सदस्य मनोनीत हुए । वर्ष 1929 में उन्होंने 'समता समाज संघ ' की स्थापना की । इसके बाद 1930 में उनके द्वारा कालाराम मन्दिर में अछूतों के प्रवेश की मांग करना, *जनता* नामक पत्र निकलना, 1936 में "इंडिपेंडेंट लेबर " की स्थापना करना उन्हें पिछड़े वर्गों का मसीहा सिद्ध करने लगा ।अब तक दलित वर्ग उन्हें दूत मानने लगे थे , उनके बताए रास्ते पर चलने लगे थे । ये बात तो तब और भी सही सिद्ध होने लगी जब उन्होंने "शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन " नाम से राजनीतिक पार्टी बनाई , बाद में उसे भंग करके उसके स्थान पर "रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया " का गठन किया । लेकिन उन्हें 1952 और 54 के चुनाव पराजय हाथ लगी । तब उन्होंने महसूस किया कि अनुसूचित जातियों की आबादी तो केवल 20% ही है , जब तक उनको 52% पिछड़े वर्ग का समर्थन नहीं मिलेगा वे चुनाव नहीं जीत पाएंगे । एक रोचक तथ्य यह भी है कि रिपब्लिकन पार्टी बनाने का विचार विमर्श पटना में ही हुआ था । 1957 से 1967 तक इन वर्गों की एकता पर आधारित रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया एक बड़ी राजनैतिक ताकत के रूप में उभरी थी, परन्तु बाद में कॉंग्रेस जिसके लिए यह पार्टी सबसे बड़ा खतरा बन गयी थी , ने दलित नेताओ की कमजोरी का फायदा उठाकर पार्टी को कई टुकड़ों में बांट दिया ।
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में बाबासाहेब दलितों और पिछड़ों की एकता स्थापित करने के लिए पिछड़े वर्गों के नेता राम मनोहर लोहिया से भी सम्पर्क किया था । परन्तु दुर्भाग्यवश जल्दी ही उनका देहांत हो गया। किन्तु ये बात सत्य है कि उन्होंने ही सर्वप्रथम दलितों के लिए पृथक निर्वाचका की मांग की थी , भले हो वो उनके समय मे स्वीकृत नही की गई लेकिन उनके बाद आये महान व्यक्तियों ने इसे स्वीकृत करा लिया । इनके बाद आगमन हुआ दलितो के दूसरे हमदर्द कांशीराम जी का ।कांशीराम ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर भारत मे बहुजन आंदोलन की शुरुआत की थी । कांशीराम ने अपनी राजनीतिक यात्रा बाबासाहेब अम्बेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया से शुरू की जो बामसेफ ऑल इंडिया बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लॉइज फेडरेशन)और डीएस -4 के रास्ते बसपा तक पहुंची । वे शुरु से ही दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को साथ लेकर चले।डॉ भीमराव अम्बेडकर के बाद कांशीराम ही दूसरे शख्शियत थे जिन्होंने भारतीय समाज मे दलितों के उत्थान के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया ।यहां तक कि वे दलितों के हित एवं संरक्षण के लिए इतने आबद्ध और आतुर थे कि उन्होंने राष्ट्रपति बनने का अवसर भी स्वीकार नहीं किया ।कांशीराम का जन्म तो हुआ था पंजाब में लेकिन वन विभाग में अधिकारी रहते हुए ये दलित कर्मचारियों के संस्था से जुड़े और दलितों से जुड़े सवाल उठाने शुरू किए। ये सच है कि कांशीराम डॉ भीमराव अंबेडकर की तरह चिंतक और बुद्धिजीवी नहीं थे , परन्तु भारतीय राजनीति और समाज मे एक बड़ा परिवर्तन लाने में इन्होंने बड़ी भूमिका निभाई है।
1981 में उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की स्थापना की । पुनः 1984 में बसपा की स्थापना के बाद से वे पूर्णकालिक राजनीतिक -सामाजिक कार्यकर्ता बन गए थे । 9 अक्टूबर 2006 को दलितों के अधिकार के लिए लड़ते हुए उनकी मौत हो गयी।ये ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थ की जगह समाज के लिए काम किया ।।
Nice post monali ji..
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