क्यों फेंक दिए गए सिद्दीकी ?

                 (हस्तिनापुर के बोल)




इस वक्त भारत के राजनीति में कूदने का समय अपने मस्तानी चाल में चल रहा है। हर कोई कहीं न कहीं से भाग कर बीजेपी में शामिल हो रहा है। सिर्फ़ बीजेपी ही ऐसी पार्टी है जहाँ कूद सिर्फ़ आगे की ओर है। आप इसे अपने नजरिये के हिसाब से आगे या पीछे की संज्ञा दे सकते हैं। क्योंकि जब भारत में कांग्रेस अपने चरम पर था तब भी स्थितयां कुछ यूँ ही थी। हर तरफ़ कूद थी पर उसमें कूद सिर्फ़ आगे की ओर थी जो बाद में पीछे कूदने लगे।
  आप में तो फ़िलहाल भारी मात्रा में उछल कूद हो रही है, शायद उसमें घर घुड़ दौड़ हो रही है। कुछ ऐसी ही लोमड़ी दौड़ बसपा में जारी है। इस बार चालाकी मायावती ने अपनी और से की। निकाला तो अपनी पार्टी के एक मात्र स्थापित मुस्लिम नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी को लात मारकर बाहर कर दिया। वह भी जब वे 23 साल से लगातार उनकी प्रख्यात सैंडिल को चमकाने में लगे थे। किसी भी पार्टी में लगतार इतने साल काम करने के बाद सिर्फ़ एक आरोप के साथ निकाला देना कि वे टिकट लेकर सीट बेच रहे थे। यह बसपा में कुछ ऐसा ही आरोप है जैसे कि बीजेपी से निकले के लिए साम्प्रदायिकता।


सबसे बड़ा कारण नसीमुद्दीन सिद्दीकी को फेकने का
                    इस सवाल का जवाब बहुत ही आसान है। अब जब पार्टी से स्वामी प्रसाद मौर्या और नसीमुद्दीन सिद्दीकी बहार जा चुके है तो बड़ा नेता कौन बचा है। ये मायावती , उनके भाई आनन्द ( आधुनिक अम्बानी की ओर प्रगतिशील ) और एक ब्राह्मण चेहरा सतीश चंद्र मिश्रा। बसपा जिसका इतिहास बीएस-4 और बामसेफ से शुरू होता है उसमें मायावती के बाद सतीश चंद्र मिश्रा तो अध्यक्ष बन नहीं सकते। बचे सिर्फ़ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष आनंन्द। जिनके परमानन्द बने के पूरे आसार नजर आ रहे हैं।

यही प्रक्रिया कभी मुलायम सिंह यादव ने और अभी हाल ही में टीआरएस के नेता केसी राव ने भी अपनाया। लेकिन इसमें बड़ा ख़तरा भी कहीं अजीत सिंह के लोक दल के जैसी न हो जाय। क्योंकि आनन्द को ख़ुद को दलित नेता बनाने में राहुल गांधी से भी ज्यादा मेहनत करने पड़ेगी। वैसे तो राजनीति में लोग कूदते रहते हैं। आगे पीछे और कभी सिर के बल......

-रजत अभिनय और दिवाकर

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