हिमाचल की राजनीति से आप कंचे खेल सकते हैं ।

(हस्तिनापुर के बोल ) 



जब कभी आप किसी पान की दुकान पर खड़े हो तो कुछ देर में ही समझ जाएंगे कि फ़िज़ाओं में किसी की राजनीति बह रही है। यूपी , बिहार, पंजाब , राजस्थान , हरियाणा , महाराष्ट्र और और तो यहाँ तक की उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों में आपको राजनीति समझने के लिए जाति समझनी पड़ेगी। वो जो बड़े वाले राजनीतिक विशेषज्ञ है , वे इन आंकड़ों ऐसे रटे होते है जैसे बच्चा 10 और 20 का पहाड़ा। इन्हीं पहाड़ों के बीच एक पहाड़ भी है। हिमाचल प्रदेश। दो राज्यों में चुनाव है , गुजरात पर काफी ज़ोर है। हो सकता है कि जब आप ट्रैन से सफ़र कर रहें हो तो बगल वाला आपको को पटेलों की गणित समझता फिरे। इसलिए आपको हम हिमाचल की राजीनीति से रूबरू कराएंगे, ताकि आपके के राजनीतिक ज्ञान और नुक्कड वाली भौकाल में कोई कमी न आएं।
हिमाचल की राजनीति बड़ी ही सुलझी हुई है। इतनी कि आप उसके गोटियां खेल सकते हैं। 

  • सिर्फ़ पाँच मुख्यमंत्री हुए-
कमाल की बात है। जहा कई राज्यों में 6 महीने में 6 मुख्यमंत्री बदल जाते है , वहीं हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य में अभी तक सिर्फ़ 5 मुख्य्मंत्री हुए। पहले थे यसवंत सिंह परमार । हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने का श्रेय भी इन्हें ही जाता है। कांग्रेस के बड़े नेता और 1952 से लेकर 1977तक मुख्यमंत्री रहे। बीच कुछ समय के लिए हिमाचल प्रदेश बिना विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश था।इसके बाद कांग्रेस ने उतरा रामलाल को। और यही वह नेता है जो कांग्रेस के साथ बीजेपी के लिए भी प्रवेश द्वार खोल दिया। रामलाल की राजनीति कुछ ज़्यादा ख़ास नहीं दे पाई । रामलाल का पद भी हरा पेड़ काटने के चक्कर में चला गया। यही शुरू बीजेपी और कांग्रेस की दो दलीय लड़ाई । आपातकाल के बाद शांता कुमार के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। 22 जून 1977 को बनी सरकार 14 फ़रवरी 1980 को आपसी फूट के चलते टूट गई। जनसंघ से बीजेपी का उदय हुआ और बहुत सारे नेता बीजेपी में आ गए। 1983 में राम लाल को हटाकर राजा वीरभद्र सिंह को कांग्रेस का नेता चुना गया। इसके बाद 1985 में विधनसभा भंग कर चुनाव लड़े । 1985 से लेकर 1990 तक वीरभद्र सिंह ही मुख्यमंत्री रहें। एक बार फिर गुजरात से निकले रथ ने बीजेपी को सत्ता में वापस तो लाया लेकिन दिसम्बर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया गया। एक बार फिर शान्ता कुमार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके।  1993 में बीजेपी ने हिंदुत्व का कार्ड चला पर हिमाचल की जनता नकार दिया। कांग्रेस ने सरकार तो बना लिया लेकिन सुखराम जैसा बड़ा ब्राह्मण चेहरें ने बगावत कर दी। सुखराम का नाम उस दौर में टेलिकॉम घोटाले में भी आया था । उधर दूसरी और avbp से होकर युवा मोर्चा का काम करते हुए बीजेपी में एक नए चेहरें ने जगह बना ली थी। प्रेम कुमार धूमल जो कि ठाकुर चेहरे थे। वहीं पहली बार तीन पार्टियों ने चुनाव लड़ा। एक और कांग्रेस थी और दूसरी और सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस और बीजेपी का गठबंधन। 1998 से 2003 तक बीजेपी हिविका की सरकार रही। प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में पहली बार बीजेपी ने पूरा कार्यकाल पूरा किया। इतनी सड़के बनाई कि धूमल का नाम 'सड़क वाला मुख्यमंत्री '  हो गया। शांता कुमार और धूमल के आपसी मतभेद ने बीजेपी को सत्ता से उतार दिया । कांग्रेस आई और फिर बीजेपी। अभी कांग्रेस की सत्ता है जो जाने वाली है और आने वाली बीजेपी।

  • जातिगत लड़ाई न के बराबर

वैसे तो हिमाचल तीन मुख्य जतियाँ है। ब्राह्मण , क्षत्रिय और खत्री। सबसे प्रभावशाली जाति है क्षत्रियों की जो कुल 28% हैं। कुल सवर्णों की संख्या लगभग 56% है। सत्ता भी इन्ही के बीच घूमती रहती है। 1998 के चुनाव में सुखराम के हिमाचल विकास कांग्रेस बनाने के समय जाति आधारित मत  पड़े थे। उस समय ब्राह्मणों ने का कांग्रेस से काफ़ी अलगाव हो गया था। प्रेम कुमार धूमल (क्षत्रिय) + सुखराम (ब्राह्मण) ने जाति समीकरण तैयार किया। जो इसके बाद कभी नहीं दिखा। 
पिछड़ी जतियाँ कुल 10% है और  अनुसूचित जातियों की संख्या  25% है। पर कोई किसी पार्टी का वोट बैंक नहीं। सब अपनी सुविधा के अनुसार पार्टी को बदल कर वोट करते रहतें है।

  • कुछ अन्य विभेद

कोई ख़ास विभेद नहीं है पर चुनाव में इन्हें बाँट कर वोट लेने की साजिश होती रहती है। 1966 में हिमाचल में कुछ नए हिस्से जोड़े गए थे। जो ज़्यादा राजनीतिक सक्रियता का परिचय देते हैं। नये और पुराने हिमाचली के रूप में बाँट कर वोटों का जुगाड़ किया जाता है। ठीक इसी तरीके से आदिवासी और गैर आदिवासी , पहाड़ी और नीचे रहने वाले। 

  • लोकल राजनीति ज़्यादा महत्वपूर्ण

चुनाव जीतने या हारने में कोई सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है तो वह है लोकल नेता जी। चूँकि हिमाचल में कुल 68 सीटें हैं जिसमें थोड़े मत अंतर पर सरकार बन जाती है। जो नेता लोगों से व्यक्तिगत जुड़ा हो वह ज़्यादा सफ़ल है। लोगों का पंचायतों में ख़ूब भरोसा है। फिर विधायकों का उनके रिश्तों पर निर्भर करता है। इसलिए हर बार बगावत अपनी क़सर जरुर दिखा देता है। 
    जो पार्टी चुनाव से पहले बगावत रोकने में सक्षम हो जाये वह जीत जाएगा। इस वक्त पुरे भारत में हिमाचल हैं जहाँ बीजेपी नेता कांग्रेस में गए। हालाँकि कांग्रेसी भी बीजेपी में आए। लेकिन जिस तरीके बीजेपी का संघठन ज़मीन तक पहुँचा है वह जीत के लिए माहौल बना रही है।


अब इस बात को आप ज़ोर से कह सकते हैं कि हिमाचल की राजनीति आपके लिए कंचे खेलने जैसा है।

-रजत अभिनय ( special thanks to Vasudev Ji)
- कार्टूनिस्ट - राजेश चौहान 

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