हदहाल है, मोदी सरकार है।
(विचार अड्डा)
अर्ज किया है--
" सूरज फिर चमकेगा भाइयों,
अभी दिन निकलना बाकी है।
इतने में परेशान मत हो तुम,
अच्छे दिन आने बाकी है।"
इतने में परेशान मत हो तुम,
अच्छे दिन आने बाकी है।"
धैर्य की भी एक सीमा होती है जी।और हमें लगता है कि इस मामले में हम बिहारियों का कोई मुकाबला नहीं।देखिये न मोदी जी के अच्छे दिन आये की नहीं आये मुझे नहीं पता। जैसे सूरज के उदय होने के बाद भी बादल से ढका होने पर हमे रात सा आभाष होता है। लगता है ठीक वही स्थिति आज हमारे देश की हो गई है। प्रयास तो हो रही है पर प्रकाश दिख नहीं रहा है--शायद हमारी ही कोई कमजोरी होगी जिससे हमें अच्छे दिन की कोई एक झलक दिख नहीं रही। यदि आपको दिखे तो एक उपकार करना भैया! मुझे जरूर बताना।जैसे एक नवजवान का दिल उर्वशी रौतेला के एक झलक के लिए
बेकरार रहता है ठीक वैसे ही मेरी ललक हमारे मुल्क में अच्छे दिन देखने की है।
कहने के तो जनाब-ए-आली हम 21वीं सदी के इंसान है और अपने विवेक और बुद्धि से चाँद पे भी घर बनाने की ठान रहें हैं। मैं आज चाँद के ऊपर अपना शोध पत्र लिखने नहीं बैठा हूँ। मैं आज अपने गांव का एक अजीब किस्सा सुनाने बैठा हूँ जिसे मुझे डॉ अभिषेक सर ने बताया। सचमुच दोस्तों यह किस्सा इतना अजीब है कि मजबूरन मुझे इसे लिखना पड़ रहा है--बात दरअसल यह है कि मैं एक बिहार का नागरिक हूँ। घर है मोतिहारी जिला और गांव का नाम है महम्मदपुर मझोलिया जो अपने तीन हिस्सा से बूढ़ी गंडक नदी से घिरा है। यहाँ मैं इसलिए चर्चा कर रहा हूँ मेरे गांव में आज तक बिजली की आपूर्ति सही से नहीं मिल पा रही है। आज महानगरों में बसने वाले नागरिकों को यह बताना चाहूंगा कि यहाँ जब दो से तीन घंटे के लिए जब बिजली राखी सावंत के जैसे बिन बताए गायब हो जाती है तो हमें ऐसा लगता है कि किसी ने हमारी साँसे छीन ली हो। मन बेचैनी से छटपटाने लगता है।तो सोचिये जनाब इस प्रचण्ड गर्मी के सीजन में हम ग्राम वासियों का क्या हल होता होगा? हम ग्रामीणों की प्रत्येक रातें डिबिया(दीपक) या लालटेन की रोशनी में बितानी पड़ती है, यहाँ कूलर और फ्रीज़ की तो बात छोड़िए पंखा भी सायद किसी के घरों में होता है।मैं यह बात यहाँ इसलिए दोहरा रहा हूँ क्योंकि आज जहाँ हम डिजिटल इंडिया की बात कर रहें हैं तो मैं बताना चाहूँगा कि जनाब आप एक बार मेरे गांव आईये। माफ़ कीजिये मैं वापस अपने किस्से पर आता हूँ। बात दरअसल यह है की हमारे गांव में रहते है एक फिरोज मियां! कुछ दिनों से अचानक लाड़ली गइया(गाय) न जाने क्या हुआ कि बेचारी अपनी सानी-पानी को मुँह तक न लगाते हुए मौन सत्याग्रह पे बैठ गई। फिरोज मियां तो शुरू में बेख़बर रहें।पर जैसे-जैसे दिन ढलेने लगा तो मियां के परेशानी में भी इजाफ़ा होनें लगा। कुछ लोगों ने डाक्टरों से दिखने की सलाह दी तो कुछ ने कुछ और उपाये सुझाये।भाई मियां को यह दर सता रहा था कि कहीं गाय मर गयी तो हिन्दू समाज को आरोप लगाते देर न लगेगी की मैंने जानबूझ हत्या की है।उसने डॉक्टर के पास न जाकर एक ओझा को पकड़ लाया और पावों पकड़ कर दुःख से मुक्ति के लिए प्रार्थना की।लेकिन इसका अंत सुनिए आज सबेरे फिरोज मियां की गइया मर गई और बेचारे मियां अपने पुरे परिवार समेत अस्पताल की हवा खा रहें हैं।हुआ यह कि बेचारे जिस बाबा को अपना मसीहा समझ घर लाये थे, वही बेहोशी की दावा पिला कर घर का सारा बहुमूल्य वस्तु ले भागे।
जरा रुकिए इसे पढ़ कर आपको यह सुनी-सुनाई बातें लग रही होगी। परन्तु जरा सोचिये कि आज भी हमारे देश में ऐसे पिछड़े इलाके है जो अपने अवचेतन में अन्धविश्वास को बसाये हुए है।भले ही आज हम डिजिटल इंडिया के समय में जी रहे है लेकिन भइया आपसे अनुरोध है की एक नजर हम ग्रामीणों पर भी दीजिए .......
-अरुण रघुरती (edit by Shilu )
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