फिल्लम वाले काका

(फ़िल्मची)



त ई कहानी है भैया एगो बलदेव काका के! रहते तो थे गाँव में ही अपनी पुस्तैनी हवेली में, बाकी दिल-दिमाग से कहीं औरे बिराज्ते थे! सही कहें तो फ़िलमवाँ का बड़का शौकीन आदमी थे अपने बलदेव काका! पर... लेकिन-किंतु-परंतु-बन्धु के चक्कर में मुंबई जाए के सपना... सपने रह गया! जुवानी का फ़िल्मी प्यास बुढापे का psyco patient बना दिया था उनको! रुप-रंग आउ चाल-चलन अमिताभ, राजकुमार और देवानंद के नकल से लिपा-पोती किया होता था!
            काका जहैं बैठ गये ओजै माह्फिल जम जाता था! फ़िल्लम वाला dialogue बोलने का अज्बे अंदाज़ था उनका! हइ खुदे देख लिजिये...

श्रोता- का हो कक्का, कैइसन हैं?

काका- जानी...हम...ठीके हैं!

श्रोता- अच्छा काका एगो बात पूछें?

काका- अ धत्त बुड़बक्क..एगो काहे दुई गो पूछो!

श्रोता- हमरा और तोहरा में का अंतर हवे? दुनू त ईहे भूइयाँ के माटी देह में लगड़ के एत्तगो हुए हैं?

काका- अरे! इहे से नू कह तनी...जे..ह्म्ही हम हईं त का हम हईं...अ..तुहिं तू हवे त का तू हवे???

दूसरा श्रोता- वाह कक्का आप त एकदम सौ टका के बात बोल दिये! एत्ना टैलेंटवा हइये था त हिरोवे काहे नहीं बन ग्ये?

काका- बेट्टा!! जब तक न हो *मगज* में तकदीर के लकीर...तब तक नै बनता है कोइयो अमीर..बुझे की नै बुझे? हाँय..!

दूसरा श्रोता- पर हमरे बाबूजी त कहते थे की मेहनत से आदमी बड़ बनता है!

काका-लो... हइ देख लो एगो बकलोलवा को..!..अरे! मेहनत त गदहो करता है बाकी उ टाटा थोड़बे हो गया? कत्ते समझाएं हम तुम लोगन को? कपार दुखाबे लगता है ह्मरा..! तुम लोग म्ने कि भुका देते हो अपने कक्का को! जाओ अब सब आराम करने दो हमको!

                      
                ✍अंशु 
               

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