मेरे भैंस को डंडा किसने मारा'
(फ़िल्मची)
भाई हमने तो जब से अपना होश संभाला है इस बात को समझने में सफलता पाई है कि जैसे इंसानियत का कोई धर्म ,मजहब नहीं होता ठीक वैसे ही संगीत का भी कोई अपनी भाषा नहीं होती। यह तो बस अपने धुन ,लय और तानों के माध्यम से आम आवामो के दिलों की गहराइयों में बड़े नज़ाकत से उतराना चाहती है। लेकिन ज़रा रुकिए ! संगीत सिर्फ़ दिलों में ही नहीं उतरती है हुजूर! एक रिसर्च से पता चलता है कि यह हमारे आज के गला काट प्रतियोगितावादी जीवन में उत्पन्न तनाव को घटाने में रामबाण इलाज है और हमें सुकून पहुँचाने में भी मदद करती है।
बेसक ही आज के गानों ने भारत ये बदलते रूप को प्रस्तुत कर रही हैं और अपनी प्रसिद्धि को दिन दुगुना रात चौगुना फैलाने में लगी है। लेकिन साहेबान! हम आज बात आज के संगीत और गानों की करने के लिए नहीं बैठे हैं।यहाँ हम चालीस के दशक के बेहतरीन फ़नकार के अलाप को आपके सामने लाने के उपस्तिथ हुए हैं। आज हम बात कर रहे है एक ऐसे फ़नकार की जिनके गाने के दीवाने मोहम्मद रफ़ी साहब से लेकर किशोर कुमार तक थे। आप लोगों ने यह गाना तो 26 जनवरी और 15 अगस्त को जरूर सुना होगा।' ये मेरे प्यारे वतन , ये मेरे बिछड़े चमन तुझपे दिल कुर्बान' जी हाँ यह गाना आज भी उतना ही प्रिय है जितना कि तब के ज़माने में था।इस गाने को फ़िल्म 'काबुली वाले' में फ़िल्माया था।इस को अपनी मखमली आवाज़ दी थी मन्ना डे - वही मन्ना डे जिनकी चर्चा हम यहाँ पर कर रहे हैं। अपने जीवन में लगभग 4000 से ज्यादा और अनेक भाषा में गाने गाकर यह भारतीय संगीत जगत में एक मील का पत्थर बनने में कामयाब हुए। इनका जन्म 1 मई 1919 में बंगाल के रूढ़िवादी परिवार में हुया था। इनके पिता इनको वक़ील बना चाहते थे। पर विधि का विधान कौन बदले रे भाई।पिता जी को क्या पता कि चूमो सा दिखने वाला यह लड़का आगे चलकर एक ऐसा सितारा बनेगा जिसकी चमक कभी नहीं मिटेगी। इन्होंने अपने चाचा केसी डे से प्राम्भिक संगीत शिक्षा लेनी शुरु कर दी। 23 साल की उम्र मुम्बई पहुँच गए। उस्ताद अब्दुल रहमान खा और उस्ताद अमन अली खान से।शस्त्रीय संगीत की तालीम ली। इन्होंने अपना पहला गाना फ़िल्म तमन्ना में 1943 में गा कर कैरियर की शुरुआत की जो 2013 तक चलता रहा। इनका एक गीत - 'मेरे भैंस को डंडा किसने मारा' आज की उदास चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए काफ़ी हैं। इन्हें पदम् भूषण , पद्म श्री , दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया। आज इनके जन्म दिन केअवसर इनको बधाई। यह भले हमारे बीच नहीं हैं लेकिन इनके गाये गीत आज भी मौजूद हैं।
' ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय ! '
- अरुण रघुरति
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