जानिए कैसे 1 मई बन गया 'मज़दूर दिवस'

                        (भूले बिसरे)




आज है 1 मई। इसे मई दिवस के रूप में भी जाना जाता है और अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में भी। आज का दिन भारत समेत दुनिया के लगभग 80 देशों में मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसलिए इसे अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस भी कहा जाता है। भारतीय नेताओं व बुद्धिजीवियों के लिए आज का दिनचर्या बड़ा ही व्यस्त होता है। हर वो नेता और तथाकथित बुद्धिजीवी जो अन्य दिन मजदूरों को कुत्ता-बिल्ली समझते हैं, अपने आप को मजदूर के हमदर्द साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। आज  एक नेताजी ने तो हद ही कर दी। 20 लाख के चारपहिया वाहन लेकर मजदूरों के बीच गए खुद को ये बताने के लिए कि वो भी उनके तरह मजदूर ही हैं और उनके हक के लिए लड़ते हैं। वैसे ही जैसे राहुल गांधी जी विदेश यात्रा से आने के बाद लोगों को अपना फटा कुर्ता दिखा रहे थे। नेताजी शायद ये भूल गए कि यह गूगल का जमाना है। मालिक! अगर आप उनके हक के लिए लड़ते तो उनके पास 20 लाख की चार पहिया वाहन न सही कम से कम 60-70 हजार की एक मोटर साइकिल तो जरूर होती। खैर छोड़िए। यह भारत देश है। यहां लगभग हर नेता राहुल गांधी ही है। 


मजदूर दिवस अतीत के आईने मेंः

मई दिवस का इतिहास बड़ा ही रोचक रहा है। अगर हम अपने आप को थोड़ा फ्लैश बैक में ले जाए तो एक समय ऐसा था जहां मजदूरों के काम करने की कोई समय-सीमा नहीं थी। उन्हें हर दिन लगभग 18 से 20 घंटा काम करना पड़ता था। सबसे हैरानी की बात यह है कि उन्हें इसके लिए अतिरिक्त वेतन नहीं दिये जाते थे। जो बहुत अमानवीय है। इसका विरोध सबसे पहले 1806 ई में अमेरिका के फ़िलाडेल्फ़िया मोचियों द्वारा किया गया। हालांकि उनके लिए यह आसान नहीं था। इसके लिए अमेरिकी सरकार ने उनलोगों पर मुकदमा भी कर दिया। इस मुकदमें से मजदूरों को एक फायदा यह हुआ कि पहली बार यह बात सामने आई कि उनलोगों से 18 से 20 घंटा काम करवाया जाता है। इसके बाद 1827 में दुनिया की पहली ट्रेड यूनियन मानी जानेवाली ‘मकनिक्क्स यूनियन आॅफ फ़िलाडेल्फ़िया’ काम के अवधि को घटा कर 10 घंटे और अच्छे वेतन की मांग को लेकर हड़ताल की। यह आग धीरे-धीरे फैली और इसके बाद अलग-अलग यूनियनों ने हड़ताल के माध्यम से इसकी मांग की। अस्ट्रेलिया के इंफ्रास्ट्रक्चर के मजदूरों ने इसके लिए एक नारा भी दिया- ‘‘8 घंटे काम, 8 घंटे मनोरंजन और 8 घंटे आराम।’’ लेकिन 8 घंटे काम करने की यह मांग अमेरिका में ‘नेशनल लेबर यूनियन’ नामक संगठन द्वारा 1866 में पहली बार सुनाई दी जिसके बारे में 1868 में अमेरिकी कांग्रेस ने एक कानून भी पास किया, जो सिर्फ कागजों तक ही सीमित रह गया। इसके बाद अमेरिका के अलग-अलग राज्यों में यह आंदोलन और तेज हुआ और मजदूर 8 घंटे काम करने की मांग पर कायम रहे। लेकिन इस मांग को आखिरी अंजाम तक पुंचाया अमेरिका की एक संगठन ‘द अमेरिकन फेडरेशन आॅफ लेबर’ ने। इस संगठन में 7 अक्टूबर 1884 को ‘द अमेरिकन फेडरेशन आॅफ लेबर ने ‘नाईट्स आॅफ लेबर’ नामक ट्रेड यूनियन के साथ मिलकर यह घोषणा की  िकवह 1 मई 886 से काम करने की अवधि 8 घंटे तक सीमित करने की मांग को लेकर हड़ता करेगी। इसने सभी मजदूर संगठनों को एक होने का आह्वान किया और हड़ताल की। जिसका व्यापक असर भी हुआ। 1 मई, 1886 को अमेरिका के शिकागो को मुख्य केंद्र बनाकर एक बड़े पैमाने पर हड़ताल हुई जिससे शिकागो के फैक्ट्री मालिक भी हिल गए। इस आंदोलन को रोकने के लिए 3 मई को पुलिस ने मजदूरों की एक सभा पर बर्बरतापूर्वक दमनकारी रूख अख्तियार किया जिसमें 6 मजदूर मारे गए और कई घायल हुए। इस घटना की निंदा करने के लिए मजदूर 4 मई को शिकागो के ‘हे मार्केट स्क्वायर’ पर एकत्र हुए। इस सभा को भंग करने के लिए एक बम भी फेंका गया जिसमें 4 मजदूर के साथ 7 पुलिसवाले भी मारे गए थे। इसके लिए 4 मजदूर नेताओं को फांसी की सजा भी सुनाई गई थी। ‘हे मार्केट की इस घटना ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। इसके बाद 14 जुलाई, 1889 को पेरिस में दुनियाभर के समाजवादी और कन्युनिस्ट नेता दूसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल गठन के लिए एकत्र हुए। 1 मई, 1890 को दुनियाभर में मजदूरों की मांग को लेकर मई दिवस मनाने का फैसला लिया गया। इसमें सबसे प्रमुख मांग ‘काम के घंटे को आठ घंटे करने की थी। 1 मई को मई दिवस के रूप में अमेरिका के साथ-साथ यूरोप के कई देशों में भी मनाया गया। तब से लेकर आज तक 1 मई को इंटरनेशनल लेबर डे के रूप में मनाया जा रहा है। भारत में इसकी शुरूआत सबसे पहले 1मई 1923 को चेन्नई में हुआ। इस की शुरूआत भारती मज़दूर किसान पार्टी के नेता कामरेड सिंगरावेलू चेट्यार ने शुरू की थी।
उन्होंने यह भी कहा था इस अवसर पर दुनिया के सभी मजदूरों को एक हो जाना चाहिए। हालांकि ये अलग बात है कि उनके खुद के संघ में ही 70 से ज्यादा अलग-अलग मजदूरों के संगठन है जिसे वो आज तक एक नहीं कर पाये।
अब सवाल यह उठता है कि वाकई में 1 मई को मनाया जानेवाला यह ‘मजदूर दिवस’ भारतीय मजदूरों के लिए हितकर साबित हो रहा है या और दिवस की तरह सिर्फ दिवस बनकर ही रह जाता है। हमारे यहां तो यह भी परंपरा रही है कि स्वतंत्रता दिवस के दिन अपने राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान हर भारतीय करता है लेकिन उसके अगले ही दिन किसी को यह ध्वज कहीं गिरा मिल जाता है तो वह एक साधारण कपड़ा क टुकड़ा समझकर उसको रौंदकर आगे बढ़ जाता है। अगर हम भारत की बात करें तो आज भी हमारे यहां मजदूरों की स्थिति खुस खास बदली नहीं है। आज भी यहां बच्चों से अमानवीय तरीके से मजदूरी कराई जाती है। आप कहीं भी किसी भी ढावे या चाय की दुकान पर चलें जाये ंतो वहां आपको एक न एक बच्चा काम करते दिख ही जायेगा। अपने को मजदूर का हितकर कहने वालों के यहां भी यह नजारा देखने को मिल जायेगा। हालांकि हम भारतीय हैं और हमेशा से हम अपनी सोच को बड़ा रखते हैं और सकारात्मक बदलाव चाहते हैं। तो उम्मीद है कि 1 मई को मनाया जानेवाला यह मजदूर दिवस सिर्फ दिवस न रहे बल्कि मजदूरों के उत्थान के लिए भी कारगर साबित हो।

-अश्वनी भैया

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