यह भी हिंसा का शिकार हैं बस ख़बर नहीं है

(दूर दराज़)



सड़क तो थी वहां पर चाँद था यह दावा नहीं किया जा सकता है। कदम संयमित और आँखे सबके जैसी सपनों से लबरेज़ थी। बस वह गुजर रहा था कि पीछे से कॉलर पकड़ लिया। गलियों से सजा कर बोला कि साला घर में से निकल रहा है।उसने मना किया और असहमति की घुट्टी के दो बूंद गिरा दिये। आँखे नम थी और बोले जा रहा था कि नहीं मैं घर में से नहीं निकल रहा हूं। मैं तो चट्टी ( बाज़ार) से आ रहा हूँ।

सुबह फ़ोन आता है एक लड़का जिसे वह जनता है वह पूछता है ' कहाँ हो , घर आ जाओ थोड़ा काम है'

वह निकल जाता उन्हीं गलियों की ओर जहाँ वह कल कुछ सवालों की आग को झेला था। जैसे ही गांव में पहुँचता कुल 20 लोग उसे पकड़ लेते हैं आदिवासी भी जिस दंडविधान को त्याग चुके है वैसे  रस्सी से बांध कर पीट देते हैं। पीटने के बाद उसे पता चलता है कि उस पर आरोप है कि वह इस दलित बस्ती के किसी लड़की का चक्कर है। वह उस लड़की को फ़ोन करता है, जो बात उसके भाई को पता है। बस कुछ इतनी सी बातें थी अब वह लंगड़ाता हुआ चल रहा है। नाम शिवम और घटना बिहार के सारण के रसुलपुर चट्टी नामक एक छोटे से गांव की।

     फोन आया उसका मुझे। रोती हुई आवाज़ और गुस्से की महक साफ़ महशूस हो रही थी। तीन बहने और एक भाई शिवम। छोटा है और बच्चा है लेकिन स्कूल नहीं जाता। पिता जी मजदूरी करते हैं, ट्रक से आने वाले बालू को उतर कर घर चल रहा है। जमीनों को लड़किया धीरे धीरे अपनी शादियों में खा गई।

बस बचा तो ये लड़का है, जिसे पूरी बस्ती ने पीटा है। अब आप लड़के चरित्र पर सवाल तो उठा ही सकते है। हो सकता है कि वह उस लड़की को फ़ोन करता रहा हो। लेकिन यूँ पूरी बस्ती को मिल कर पीटना किस हद तक सही है। ना पीटने वाले पुलिस के पास गए और न वो लड़का। उन्हों ने पीट दिया इसलिए अब जाने की जरूरत नहीं है और उस बच्चे की औकात नहीं की वह जाए। क्योंकि उसका कहना है कि खाने का खर्च तो है नहीं तो केस कौन लड़ेगा?


एक बात जो दिल और दिमाग़ दोनों को परेशान कर रही है। वह मुझसे कहे गए आख़िरी शब्द थे कि अगर उस बस्ती के लड़के को कोई इस बस्ती का पीटा होता तो अख़बार में जातीय शब्दों के साथ एक ख़बर होती। ये भावना कब तक दबी रहेगी मैं नहीं कह सकता।सुना है भारत मैं कोर्ट खुद संज्ञान लेती है पर शिवम् इसी इंतज़ार में है की उसका कब लेगी


-दिवाकर 

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