कहाँ तक लाँघ पाए सेक्सुएलिटी की सीमा ?

(विचार अड्डा)




कौन जानता था कि शेफाली जरीवाला के 'कांटा लगा' वाले गाने से जिस स्त्री सेक्सुएलिटी का आगाज हुआ वह अंतत: पोर्न अभिनेत्री सनी लियोन के स्टारत्व के खुले उत्सवीकरण तक जा पहुंचेगी और इतनी खुली यौनिक अभिव्यक्ति को सहर्ष स्वीकारने वाले हमारे समाज में स्त्री की सेक्सुएलिटी एक हश हश टॉपिक ही रहेगी।
दरअसल हमारे समाज में स्त्री स्वातंत्रय और स्त्री की सेक्सुएलिटी को एकदम दो अलग बातें मान लिया गया है।पुरुष की सेक्सुएलिटी हमारे यहां हमेशा से मान्य अवधारणा रही है। चूंकि पुरुष सत्तात्मक समाज है इसलिए स्त्री की सेक्सुएलिटी को सिरे से खारिज करने का भी अधिकार पुरुषों पास है और और अगर उसे पुरुष शासित समाज मान्यता देता भी है तो उसको अपने तरीके से अपने ही लिए एप्रोप्रिएट कर लेता है।
जिस दैहिक पवित्रता के कोकून में स्त्री को बांधा गया है वह पुरुष शासित समाज की ही तो साजिश है।यह पूरी साजिश एक ओर पुरुष को खुली यौनिक आजादी देती है तो दूसरी ओर स्त्री को मर्यादा और नैतिकता के बंधनों में बांधकर हमारे समाज के ढांचे का संतुलन कायम रखती है।

स्त्री दुहरे अन्याय का शिकार है- पहला अन्याय प्राकृतिक है तो दूसरा मानव निर्मित। गर्भ और योनि की ढोने वाली स्त्री पुरुष पर निर्भर स्त्री कैसे कैसे और किन किन तरीकों से और किस किस से हक के लिए लड़े।कोई भी सामाजिक संरचना उसके फेवर में नहीं है क्योंकि सभी संरचनाओं पर पुरुष काबिज है। उसके अस्तित्व की लड़ाई तो अभी बहुत बेसिक और मानवीय हकों के लिए है सेक्सुअल आइसेंटिटी और उसको एक्स्प्रेस करने की लड़ाई तो उसकी कल्पना तक में भी नहीं आई है। अपनी देह और उसकी आजादी की लड़ाई के जोखिम उठाने के लिए पहले इसकी जरूरत और इसकी रियलाइजेशन तो आए ।
हमारा स्त्री-समाज तो इस नजर् से अभी बहुत पुरातन है। स्त्री के सेक्सुअल सेल्फ की पाश्चात्य अवधारणा अभी तो आंदोलनों के जरिए वहां भी निर्मिति के दौर में ही है हमारा देश तो अभी अक्षत योनि को कुंवारी देवी बनाकर पूजने में लगा है। एसे में शेफाली जरीवाला अपनी कमर में पोर्न पत्रिका खोंसे ब्वाय फ्रेंड के साथ डेटिंग करती दिखती है तो इससे हमारे पुरुष समाज का आनंद दोगुना होता है उसे स्त्री की यौन अधिकारों और यौन अस्मिता की मांग के रूप में थोड़े ही देखा जाता है।सनी लियोन को अभिनय करते देख भी हमारा लिंग पूजक समाज अपनी ग्रंथि को ही सहलाता पाया जाता है और सुनहले पर्दे की ऐसी बड़ी परिघटनाएं स्त्री समाज को आजादी और अस्मिता की पहली सीढी भी लांघने लायक संदेश नहीं दे पाती।

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