लिप्स्टिक अंडर माय बुर्क़ा पुरुषवादी पाबंदी का प्रतिकार या कामेच्छा का भौंडपूर्ण प्रदर्शन


( फ़िल्मची )





तेज आवाज में बीजली कड़कने से भारी बारिश का अंदेशा होता है, लेकिन जरुरी नहीं भारी बारिश हो ही जाए। ’लिप्स्टिक अंडर माय बुर्का’ के साथ भी यही हुआ। इसके रिलीज के पहले जितना बड़ा तूफान खड़ा हुआ था (अथवा किया गया था), इसके रिलीज के बाद यह वैसी चित्कार करने वाली फिल्म साबित नहीं हुई। कुछ ऐसा ही ’उड़ता पंजाब’ के साथ भी हुआ था।
खैर, अब फिल्म पर आते हैं। ’लिप्स्टिक अंडर माय बुर्का’ चार महिलाओं की कहानी कहती है, जो पुरुषवादी सामाज के पाबंदियों को तोड़कर खुली हवा में सांस लेना चाहती हैं और वे ऐसा करती भी हैं। एक नजर में इस फिल्म को सराहा जा सकता है कि यह फिल्म महिला सशक्तीकरण की वकालत करती है। लेकिन ठहरिए, यह अधूरी बात हुई। नवोदित निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव अपने फिल्म के दर्शन को लेकर स्पष्ट नहीं दिखतीं हैं। इसको समझने के लिए फिल्म के चारों केन्द्रीय पात्र के बारे में थोड़ी चर्चा करनी होगी। फिल्म के दो प्रमुख किरदार शिरीन आलम (कोकणा सेन शर्मा) और रिहाना (प्लबीता बोरठाकुर) खुलकर जीना चाहती हैं क्योंकि उनपर पुरुषवादी पांबदियां हैं, खासकर शिरीन पर। अन्य दो किरदार बुआ जी (रत्ना पाठक शाह) और लीला (आहना कुमरा) सामाजिक मर्यादाओं को दरकिनार कर अपनी इच्छाओं को पुरा करने के लिए जतन करती हैं।
अब मोटे तौर पर देखा जाए तो फिल्म में यही दिखता है कि चारों महिलाएं अपनी आजादी के लिए संघर्ष कर रही हैं, लेकिन जब हर किरदार के परत को को सूक्ष्मता से कुरेदने पर पता चलता है कि शिरीन व रिहाना का पात्र पुरुषवादी वर्चस्व वाले समाज में महिलाओं पर पुरुषों के सुविधा के लिए थोपे गए पाबंदियों से परेशान हैं। ये ऐसी पाबंदियां हैं जिन्हें तथाकथित मर्यादा के नाम पर थोपा गया है। मर्यादा के इन बेड़ियों से परे जाकर वे दोनों अपनी जिंदनी जी लेना चाहती हैं। नई-नई काॅलेज जाने वाली व पाश्चात्य संगीत की दिवानी रिहाना तो फिर भी थोड़ी राहत में हैं। भारत के आम मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार के पारंपरिक तौर-तरीकों के दायरे में उसे रहना पड़ता है। फिर भी वह अपनी ख्वाहिशें येन केन प्रकारेण पूरी कर लेती हैं। असल में पुरुषवादी वर्चस्व की शिकार तो रिहाना भी है, भले ही शिरीन की तरह क्रूर रुप में नहीं। लेकिन शिरीन का क्या। उसका सउदी रिटर्न शौहर तो उसको इंसान मानकर भी सम्मान देने के पक्ष में नहीं है। उसे अपने मर्द होने गुरुर है। खुद बेरोजगार रहते हुए भी वह अपनी बीवी को कमाते हुए नहीं देख सकता क्योंकि बीवी उसके लिए महज एक उपभोग किए जाने वाली वस्तु भर है। भले वह खुद अपनी बीवी के रहते हुए किसी दूसरी औरत से इश्क फरमाये। शिरीन के बेहतर काम करने पर उसकी कंपनी उसे पुरस्कार देती है, यह बात उसके शौहर को नागवार गुजरता है और वह अपने पुरुषवादी तरीके से उसको सजा देता है। शिरीन का गुनाह बस इतना है कि वह एक औरत है जो अपने शौहर का सम्मान करती है।


 शिरीन की सिसक देखकर आपको मर्द जात से घृणा हो सकती है, बशर्ते कि आप मनुष्य होकर फिल्म देखिए, पुरुष या स्त्री होकर नहीं। इन दोनों पात्रों का सटीक प्रस्तुतीकरण, निर्देशक की सफलता है। इन दोनों को देखते हुए आपको लीना यादव की ’पच्र्ड’ की याद आ सकती है। अगर इन दोनों किरदार के इर्द-गिर्द ही फिल्म की पुरी कथानक बुनी जाती, तो महिला सशक्तीकरण के मुद्दे पर यह एक विश्वस्तरीय फिल्म हो सकती थी, लेकिन ऐसा न हो सका क्योंकि इन दो किरदारों की मासूमियत पर अन्य दो किरदारों ने पानी फेर दिया।
  जिंदगी के पचास वसंत देख चुकीं बुआ जी हवाई महल नाम के पुरानी हवेली की मालकिन हैं, जो उसे किसी मंत्रालय की भांति संचालित करती हैं। हवेली में रहने वाले लोग बुआजी के हर आदेश का पालन करते हैं। व्यस्क साहित्य पढ़ते-पढ़ते बुआजी को आपना बीता हुआ यौवन याद आता है। तैरीकी प्रशिक्षक द्वारा नाम पूछे जाने पर बुआजी सोचकर, यादकर, संभलकर अपना नाम उषा परमार बताती हैं, मानो मुद्दतों हो गए किसी ने उनको उनके नाम से पुकारा ही नहीं। सबके लिए वे बुआजी ही थीं। यहाँ पर आपकेा बुआजी से सहानुभूति हो सकती है। लेकिन उसके अतिरिक्त बुआजी ने जो किया वो महज दैहिक उत्कंठाओं की पूर्ति का प्रयास भर है।
फिल्म की चैथी किरदार लीला एक छायाकार से प्रेम करती है, लेकिन उसकी मां उसकी शादी कहीं और ठीक कर देती है। अपने पंसद के लड़के से प्रेम अथवा शादी करना कतई बुरा नहीं है, लेकिन लीला के मामले में प्रेम का अर्थ है कभी भी कहीं भी कैसे भी कामेच्छा की पूर्ति। लीला अपना एमएमएस वीडियो खुद बना लेती है, कि अगर उसके प्रेमी ने धोखा दिया, तो वह एमएमएस को सोशल मीडिया पर डाल देगी। अब इसे इच्छाओं या आवश्यकताओं का अतिरेक नही ंतो और क्या कहेंगे।
मानव का जब से धरती पर अस्तित्व है, तब से ही यह बात स्थापित है कि शरीर के लिए भूख, नींद एवं मैथून आवश्यक है। प्राचीनकाल से जब सभ्यताएं अपना रुप लेने लगीं, तो एक समाज अस्तित्व में आया। इस समाज ने अपने लिए कुछ कायदे-कानून बनाए, जो अनुशासित जीवनशैली के लिए जरुरी था। इन तीन जरुरतों को भी सामाजिक जीवनशैली की कसौटी पर रखा गया, ताकि लंबे काल तक आपसी सामंजस्य से जीवन चल सके। इस सामंजस्य को ही ठोस रुप देने के लिए विवाह संस्था को महत्वपूर्ण माना गया। अपने इन अनुशासित जीवनषैली के कारण स्तनपायी होते हुए भी मनुष्यों ने खुद के लिए सामाजिक प्राणाी का दर्जा हासिल किया, क्योंकि मनुष्य नें खुद के अंदर पाशविक प्रवृति होते हुए भी अपने लिए मर्यादा तय की।

और लीला का किरदार क्या कर रहा है। महज आजादी के नाम पर पशुवत व्यवहार को महिमामंडित किया जा रहा है। प्राचीन कामसूत्र से लेकर आधुनिक विज्ञान मानता है कि पुरुषों के विपरित महिलाओं की काम प्रवृति सुसुप्तावस्था (पैसिव मोड) में होती है। लेकिन लीला? उसमें कामेच्छा का इतना अतिरेक है कि एक जगह उसका प्रेमी उसे झिड़क देता है। दूसरी जगह उसका मंगेतर उसे मना करता है। ’लिप्स्टिक अंडर माय बुर्का’ की लीला महिलाओं के कौन से वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रही है। समाज पुरुषों को कामपिपासु मानता है। इस कारण पुरुष की निंदा भी होती है। जिस प्रवृति को पुरुष में अवगुण माना गया, उस अवगुण को महिला के मामले में कैसे जस्टीफाई किया जा सकता है। कम से कम महज आजादी के नाम पर तो नहीं। स्वतंत्रता व स्वछंदता में अंतर होता है और यह बात महिला व पुरुष दोनों पर समान रुप से लागू होती है। सिर्फ आजादी या महिला सशक्जीकरण के नाम पर किसी भी प्रकार के पाश्विक प्रवृति का महिमामंडन नहीं किया जा सकता।
इस फिल्म के निर्माता प्रकाश झा एक मंजे हुए फिल्मकार हैं। उनका व्यापक अनुभव इस फिल्म को प्रोडक्शन वैल्यू के स्तर पर समृ़द्ध बनाता है। किरदारों के परिधान, सेट डिजाइन, प्रकाश सबकुछ कथानक के अनुरुप है। झा अपनी फिल्मों की शूटिंग भोपाल में सेट लगाकर करते हैं। इस बार उन्होंने दर्शकों को रियल भोपाल का दर्शन गुणात्मक ढंग से कराया है। कास्टिंग पर भी ध्यान दिया गया है। इसलिए सुशांत सिंह, वैभव टटवाडी के अलावा छोटे से छोटे किरदार भी वास्तविक लगते हैं। सबकुछ अच्छा होते हुए भी एक साथ चार किरदार कि कहानी को आगे बढ़ाने में निर्देशन में बिखराव नजर आता है, इसलिए कहीं-कहीं यह फिल्म होम वीडियो की तरह लगती है।  
’लिप्स्टिक अंडर माय बुर्का’ किरदार रचना के स्तर पर दो फाड़ में विभाजित दिखती है। इस कारण यह फिल्म एक विश्वस्तरीय फिल्म बनते-बनते चुक गयी।

-प्रशांत रंजन

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