डॉन ऑफ़ कम्युनिकेशन भर्तृहरि
(दूर दराज़)
उज्जैन को उज्जयिनी के नाम से भी जाना जाता था। उज्जयिनी शहर के परम प्रतापी राजा थे महाराज गंधर्वसेन थे और उनकी दो पत्नियां थीं। एक पत्नी के पुत्र विक्रमादित्य और दूसरी पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि। गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाठ भर्तृहरि को प्राप्त हुआ, क्योंकि भर्तृहरि विक्रमादित्य से बड़े थे। अब हम बात करते है इस कहानी के शिर्षक बनने की ये शिर्षक भी गुरु जी ने ही सुझाया उनको लगता है कि भर्तृहरि ने ही संंचार का परसोनिफिकेश या मानवीकरण किया। वे धर्म और नीतिशास्त्र के ज्ञाता थे। वैराग्य पर वैराग्य शतक श्रृंगार शतक और नीति शतक की भी रचना की। यह तीनों ही शतक आज भी उपलब्ध हैं। गुरूजी मानते है कि जिन्दा आप किस संर्दभ मे सोचते है इस पर निर्भर करता है पर मै अभी इस सिधांत को सम्भालने लायक नही। इसलिए गुफा में हुए अनुभव ही लिखूं तो ही ठीक है। हम शुरू करते है कि वहां आये नाथ सम्प्रदाय के मानने वाले विनोद अडेसारा जो द्वारका से सपरिपवार आये थे।उन्होंने कहा कि गिरीनार मे नाथ सम्प्रदाय के यात्रा में वो 9 संतं लोग आते है ।प्रचलित कथाओं के अनुसार की दो पत्नियां थीं, फिर भी उन्होंने तीसरा विवाह भर्तृहरि पिंगला से किया, पिंगला बहुत सुंदर थीं भरथरी पिंगला पे मोहित थे।अंधा विश्वास करते थे। पत्नी मोह कर्तव्यों को भी याद नही आने दे रहे थे। उस समय उज्जैन में एक तपस्वी गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ। गोरखनाथ दरबार में पहुंचे भर्तृहरि ने गोरखनाथ का उचित आदर-सत्कार किया। इससे गुरु अति प्रसन्न हुए प्रसन्न गोरखनाथ ने राजा एक फल दिया और कहा कि यह खाने से वह सदैव जवान बने रहेंगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सुंदरता बनी रहेगी।
राजा अपनी तीसरी पत्नी पर मोहित थे, अत: यह सोचकर राजा ने पिंगला को वह फल दे दिया। रानी पिंगला भर्तृहरी पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा। रानी ने फल कोतवाल को दे दिया। वह कोतवाल एक वैश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया। वैश्या ने फल पाकर सोचा इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेगा तो यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए।
राजा ने वैश्या से पूछा कि यह फल उसे कहा से प्राप्त हुआ। वैश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। भर्तृहरि ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है। जब भर्तृहरि को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गया कि पिंगला उसे धोखा दे रही है। पत्नी के धोखे से भर्तृहरि के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में आ गए। इसी गुफा में भर्तृहरि ने 12 वर्षों तक तपस्या की थी।
भर्तृहरि की तपस्या से भयभीत इंद्र ने सोचा कि भर्तृहरि वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण करेंगे। यही सोच विशाल पत्थर तपस्या में बैठे भर्तृहरि पे गिरा दिया। उस पत्थर को भर्तृहरि एक हाथ से रोक लिये और तपस्या में बैठे रहे। कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भर्तृहरि के पंजे का निशान बन गया। यह निशान आज भी भर्तृहरि की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है। यह पंजे का निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर भर्तृहरि की कद-काठी का अंदाजा लगाया जा सकता है। बाकि कोई जानकारी वहाँ बैठे संतो को नही थी। ये जानकारियां आपको अपने प्रयास से समथीग सूनल आपतक पहुचा रहा है
यहां प्रकाश भी काफी कमी है, अंदर रोशनी के लिए बल्ब लगे हुए हैं। इसके बावजूद गुफा में अंधेरा दिखाई देता है। यदि किसी व्यक्ति को डर लगता है तो उसे गुफा के अंदर अकेले जाने में भी डर लगेगा। यहां की छत बड़े-बड़े पत्थरों के सहारे टिकी हुई है। गुफा के अंत में राजा भर्तृहरि की प्रतिमा है और उस प्रतिमा के पास ही एक और गुफा का रास्ता है। इस दूसरी गुफा के विषय में ऐसा माना जाता है कि यहां से चारों धामों का रास्ता है। गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है। ऐ धरती के गर्भ की गर्मी है या भातृहरी का हमे अभी भी .........
-दिवाकर
(उज्जैन के सफ़र पर आधारित)
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