बैट मेरा बाॅल मेरा.... मैं खेलूं न खेलूं मेरी मर्जी.....
(फ़िल्मची)
कुछ याद आया? जी हां बचपन में क्रिकेट खेलते समय इस उपरोक्त वाक्य से हमेशा सामना होता रहता था। बंदा को क्रिकेट खेलने आये चाहे न आये लेकिन अगर बैट या बाॅल उसका होता था तो उसे टीम के सबसे अच्छे खिलाड़ी का दर्जा देना पड़ता था। अब आते हैं मुद्दा पर। हमारे यहां मनोरंजन के लिए कई साधन हैं जिसमें एक बड़ा साधन माना जाता है सिनेमा को। भारत को संस्कारों का देश कहा जाता है। हमारे यहां खेल को भी अलग-अलग वर्ग में बांटा गया है। जैसे बच्चे ताश (प्लेइंग कार्ड्स) के पत्ते नहीं खेल सकते हैं। अगर खेलते पकड़े गये तो फिर घर में ॅॅम् का लाइव होने लगता था। ठीक वैसी ही बात फिल्मों के साथ भी है। फिल्मों को भी कटेगरी में बांटा जाता है कि कौन सा फिल्म आप अपने पिता के साथ देख सकते हैं, कौन सा अपने दोस्तों के साथ और कौन सा अकेले.... और किसे नहीं देख सकते।.ंजबकि विकसित देशों में ऐसी बातें नहीं है। चूंकि हम यह अभी विकासशील के दर्जे में आते हैं इसलिए हमारे यहां इसका जिम्मा सौंपा गया है सीबीएफसी (सेंसर बोर्ड आॅफ फिल्म सर्टिफिकेशन) को।
अब जानते हैं सीबीएफसी है क्या?
सीबीएफसी का गठन सिनमेटोग्राफी एक्ट के तहत 1952 में हुआ। इस बोर्ड में कुछ मेंबर्स होते हैं और उसका एक अध्यक्ष होता है। सेंसर बोर्ड का चीफ उसे बनाया जाता है जिसे फिल्म और क्रिएटिविटी की अच्छी समझ हो। यह पहले हर रीजन का अलग-अलग होता था। जैसे मुंबई का अलग, दिल्ली का अलग, कोलकाता का अलग इत्यादि। लेकिन 1983 में इन सभी रीजन को एक ही में विलय कर दिया गया जिसका नाम रखा गया सेंट्रल बोर्ड आॅफ फिल्म सर्टिफिकेशन। इसके तहत इसमें एक बड़ा बदलाव भी आया। सेंट्रल बोर्ड आॅफ फिल्म सर्टिफिकेशन को यह राइट था कि अगर उन्हें फिल्म का कोई दृश्य आपत्तिजनक लगता था तो उसपर कैंची चला सकते थे। लेकिन 1983 में गठित बोर्ड से यह अधिकार छीन लिया गया। अब उन्हें सिर्फ फिल्म को रेटिंग के तहत सर्टिफाई करने का अधिकार है। इसके अनुसार आप फिल्म को सिर्फ ‘यू’, ‘यू/ए’ , ‘ए’, ‘एस’ इत्यादि रेटिंग से सर्टिफाई कर सकते हैं। लेकिन हमारे देश में नियम को सबसे ज्यादा ताक पर रखा जाता है और इसका ध्यान सीबीएफसी बड़े अच्छे से रखती है।
सीबीएफसी के कुछ अद्भुत कारनामें
वर्तमान में इस बोर्ड के अध्यक्ष हैं प्रहलाद निजलानी। इससे पहले इस बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में अनुपम खेर, शर्मिला टैगोर, लीला सैमसन इत्यादि थे। अब प्रह्लाद साहब की बात करें तो ये बांकी के अध्यक्ष से काफी भिन्न हैं। ये फिल्म की समझ वाले कम और धार्मिक व्यक्ति ज्यादा लगते हैं। इन्हें फिल्मों के रचनात्मकता का कम अपितु धर्म और समुदाय का ज्यादा ध्यान रहता है। जिसका सबसे ज्यादा पीड़ित होते हैं बेचारा फिल्म के निर्माता-निर्देशक। अभी हाल ही में एक फिल्म आई थी ‘उड़ता पंजाब’। यह फिल्म पंजाब में तेजी से फैलता ड्रग का जाल और सरकार की नाकामी जैसी गंभीर समस्या पर केंद्रित थी। लेकिन प्रहलाद साहब ने इस फिल्म के 80 सीन को काटने काटने की जिद्द पर इसलिए अड़ गए क्योंकि इस फिल्म ने तत्कालीन सरकार की पोल खोल कर रख दी थी। इसी तरह एक फिल्म थी ‘लिपस्टिक अंडर बुरखा।’ इस फिल्म को तो साहब से सिरे से खारिज कर दिया क्योंकि इस फिल्म में एक खास समुदाय की भावना आहत होती थी। एक तरफ तो आप सामुदायिक भावना के कंधे पर बंदूक रखकर इस फिल्म को खारिज करते हैं और दूसरी तरफ और इससे भी हैरानी की बात यह है कि सनी लियोनी अभिनीत फिल्म ‘वन नाइट स्टैंड’ को पास कर दिया जाता है। इसी तरह कई फिल्में है जिसपर बोर्ड ने अपनी मनमर्जी की और और बड़ा ही हास्यास्पद लाॅजिक दिया। हाल ही में अनुष्का शर्मा की आई फिल्म:फिलौरी’ के एक सीन में हनुमान चलीसा को इसलिए सायलेंट कर दिया गया क्योंकि हीरो के हनुमान चालीसा पढ़ने पर भूत नहीं भागता है। बोर्ड के अनुसार हनुमान चालीसा पढ़ने से भूत को भागना चाहिए था। भूत नहीं भागा इससे लोगों की भावनाएं आहत होती है। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि फिल्मों को लेकर लोगों के भावनाएं आहत होती है लेकिन आप गाना के बोल जितना गंदे हो उसे रखो उससे किसी की भावनाएं आहत नहीं होती है। उदाहरणस्वरूप आर. राजकुमार फिल्म की ‘अच्छी बातें कर ली बहुत.... तेरे साथ अब करेंगे गदी बात।’ बड़े आश्चर्य की बात है कि इस तरह के गाना को बिना किसी अवरोध के पास कर दिया जाता है और इस तरह के गानें सुपरहिट है! अरे साहब जब आप इतने ही धार्मिक प्रवृत्ति के हैं तो किसी मठ के मठाधीश बन जाइए। यहां सेंसर बोर्ड में क्या कर रहे हैं। इससे पहले भी ऐसी फिल्में आई है जिसमें इस तरह के डायलाॅग हुआ करते थे। अमिताभ बच्चन की दीवार देखें जिसमें भगवान से ‘तुम’ कहकर बात करते हैं या दिलीप साहब की दाग, जिसमें दिलीप साहब शराब पीकर भगवान की मूर्ति हाथ में लेकर कहते हैं ‘‘आज मैं तुझे नाली में फेंक दूंगा।’’ क्या उस समय लोगों की भावनाएं आहत नहीं होती थी? लेकिन ये फिल्म तो सुपरहिट रही। मैं तो सिर्फ इतना कहूंगा कि सर, इस तरह के मजाकिया लाॅजिक देना बंद कीजिए और सीबीएफसी को मजाक बनने से बचाइए। फिल्म रचनात्मक विधा होती है। किसी के रचनात्मकता का दमन इस फालतू लाॅजिक से मत कीजिए। जहां जरूरी लगे वहीं अपना पावर दिखाइये।
-अश्वनी भैया
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