चमड़े की जुबान है , तो क्या हुआ ?
(हस्तिनापुर के बोल)
चुनाव शुरू नहीं होते कि जुमलेबाजी और बयानबाज़ी का दौर शुरू हो जाता है। हर हाल , हर कोशिश या यूँ कहें कि येन केन प्रकारेण जीतने की लालसा ने ही इस मनसा काे हवा दी है । चुनाव लोकतांत्रिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग है और इसमें शामिल होने वाले उम्मीदवारों था दूसरे दलों से उम्मीद की जाती है कि वे इसके मानदंडों के अनुसार आचरण करेंगें। चुनाव वह प्लेटफ़ॉर्म है जो आम जन को अपने पसंद का नेता चुनने का मौका देता है ।जो उनके हित में काम करे , सूबे का विकास करे। लेकिन जो स्थिति दिखी है , चुनाव के दौरान उसमें न काम की बात हुई न विकास की ।
बात यह भी है कि राजनीति में आलोचना प्रत्यालोचना चलती रहती है । चुनाव के दिनों में इसमें तेजी भी आ जाती है । उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में जिस तरह की बयानबाजी हुई है वह चुनाव के दिनों में भी नहीं होनी चाहिये। प्रधानमंत्री व् मुख्यमंत्री जैसे शीर्ष पदों पर आसीन व्यक्तियों को संविधान की शपथ इसलिए दिलायी जाती है ताकि वे इस पद की गरिमा बनाएं रखेगें , लेकिन शीर्ष पदों पर बैठे लोग ही एक दूसरे की खिलाफ निम्न स्तरीय आराेप लगाते हैं । जब ये भाषा के इस स्तर पर पहुँच जाएंगे तो आम जन , युवा और राजनीति में आने वाली नई पीढ़ी का क्या होगा । राजनीति में आने वाले युवा नेता इन्हीं को अपना आदर्श मानते हैं और इन्ही की तरह आचरण करने का प्रयास करते हैं। हम और आप इसका सहज अनुमान लगा सकते है कि इसका क्या प्रभाव पड़ेगा । कोई दल यूपी चुनाव में विकास की बात नहीं कर रहे। शिक्षा , स्वास्थ्य , बिजली , पानी, गैस जैसे मूलभूत मुद्दे उठाना तो दूर , जिस नोट बंदी को आधार बना कर रखा गया , उसके जिक्र से भी बीजेपी परहेज करती नजर आई । लोकतंत्र में ऐसी शर्मनाक बयानबाजी सुनकर ग़ांधी , आंबेडकर क्या हमारे आपके भी होश उड़ जाए । शहजादे , आतंकवादी , गैंडा , साँड़ , फेकू, गधा जैसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ । अंतिम चरण के चुनाव में निम्न स्तर ने भी खुद का निम्न स्तर छू लिया ।
"अगर गांव में कब्रिस्तान है तो शमसान भी बनना चाहिये । अगर ईद पर बिजली मिलाती है तो दिवाली पर भी मिलनी चाहिए । अगर सरकारी नौकरी चाहिए तो यादव परिवार में जन्म लेना पड़ेगा ।" यह किसी नुक्कड़ वाले छोकरे के बोल नहीं है बल्कि 132 करोड़ जनता के नेता व देश के प्रधान मंत्री के है । जब प्रधानमंत्री अपनी गरिमा भूल जाये तो और नेताओं से क्या उम्मीद करें । इस कड़ी में अखिलेष यादव भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने जिस तरह से गुजराती गंधों का जिक्र किया , उससे साफ पता चलता है कि उनका इशारा किस तरफ था । जुबान तो सबकी चली । बसपा प्रमुख मायावती ने भी नरेंद्र दामोदर दास मोदी का मतलब निगेटिव दलित मैन बतलाया । अमित शाह ने तो हद पार कर दी,सूबे के अन्य पार्टियों को कसाब तक कह डाला । एक नेता को अन्य दलों काे कसाब कहने का क्या औचित्य है ? जबकि सभी जानते है कि कसाब कौन था? क्या उनकी नजर अन्य सभी पार्टियां देश द्रोही है?
राजनीति में प्रतिद्वंदता है लेकिन यह मात्र विचारधारा और प्रतिभा का फ़र्क है । सवाल यह है कि क्या नेताओ के इस व्यवहार से लोकतंत्र अपना वजूद बचा पाएगा ? अभिलाषा...
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