सीखने की चीज है सिनेमा

                               (फ़िल्मची)


अमूमन होता यह है कि हम सिनेमा हाॅल में जाते हैं, पाॅपकाॅर्न के साथ फिल्म के मजे लेते हैं, ताली-सीटी मारकर वापस लौटते हैं, क्योंकि लोग ये मानकर चलते हैं कि सिनेमा तो सिर्फ मनोरंजन के लिए ही बना है। लेकिन गौर करने वाली बात है कि सिनेमा कला का वह प्रभावी माध्यम है, जो अपने बसावट-बुनावट-बारिकी में गंभीर है। इसके गंभीर पक्ष को ध्यान में रखते हुए देश-दुनियां में फिल्मोत्सवों का आयोजन होता है। इसके कई लाभ हैं। एक तो यह कि लीक से हटकर फिल्में बनाने वाले फिल्मकारों को दर्शक उपलब्ध हो जाते हैं और दूसरी ओर सुधि सिने प्रेमियों को यथार्थपरक फिल्में उपलब्ध हो जाती हैं। फिल्मोत्सवों के दौरान फिल्म से जुड़े लोगों का
फिल्म प्रेमियों के साथ परस्परसंवाद का अवसर भी होता है।

इस बात को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। विगत वर्ष पटना में संपन्न ’पटना फिल्म फेस्टिवल’ (#PatnaFilmFestival) अनोखा रहा। अन्य फिल्मोत्सवों के विपरित इसमें सिनेमा सीखाने की व्यवस्था की गई थी। बिहार सरकार की ओर से आयोजित हुए इस फेस्टिवल के अंतिम दिन सिने सोसायटी पटना द्वारा ’फिल्म रसास्वादन कार्यशाला’ का आयोजन किया गया था। इसमें सुधि सिने प्रेमियों को तीन-चार लघु फिल्में व वृत्तचित्र दिखाकर सिनेमा के विभिन्न पक्षों के बारे में जानकारी दी गई। खास बात यह रही कि फिल्मोत्सव के अन्य फिल्मों के उलट इन फिल्मों के बारे में एक दिन पूर्व कोई जानकारी नहीं दी गई थी। अर्थात कौन सी फिल्म दिखायी जाएगी यह दर्शक को पता नहीं था। इम्प्राॅम्सू प्रदर्शन। कार्यशाला को संचालित करने वाले सिने सोसायटी पटना (CineSociety Patna) के अध्यक्ष एवं ख्यात फिल्म विश्लेषक प्रो. जयदेव का मानना था कि अगर फिल्म की जानकारी पहले दे दी जाएगी तो गंभीर दर्शक उसके बारे में गूगल से पूछकर कई जानकारी हासिल कर लेंगे और कार्यशाला के दौरान पठित प्रतिक्रिया देंगे। कार्यषाला के दौरान 80 प्रतिशत कुर्सियां भरी हुई थी। सिनेमा हाॅल में किसी फिल्म के लिए अगर दर्शकों की उपस्थिति इतनी हो जाए, तो फिल्म व्यापार विशेषज्ञ उस फिल्म को ’सुपरहिट’ का दर्जा दे देते हैं। इस लिहाज से उस ’फिल्म रसास्वादन कार्यशाला’ को भी सिने प्रेमियों ने सुपरहिट बना दिया। इसने पुनः प्रमाणित किया कि सार्थक सिनेमा के कद्रदान बिहार में भी हैं। कार्यषाला की उपस्थिति से पता चला कि लोग सिनेमा को देखने के साथ-साथ समझना भी चाहते हैं या यूं कहें कि सिनेमा को सीखना भी चाहते हैं। विडंबना यह रही कि फिल्मोत्सव के इस महत्वपूर्ण पक्ष को समझने में हमारा मीडिया नाकाम रहा। मेरी निजी राय है कि पत्रकारों को भी सिनेमा देखने की कला सीखने की जरुरत है।

                                                    -प्रशांत रंजन

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