टाॅयलेट- एक प्रेम कथाः प्रेम के फ्रेम में स्वच्छता का संदेश।

( फ़िल्मची )





खुले में शौच कई कोण से हानिकारक है। अधुनिक भारत में महात्मा गांधी ने सर्वप्रथम इसके निराकरण की पहल की थी। वर्तमान में इसके विरुद्ध लोगों को जागरुक करने के लिए देश की सरकार ने बड़े पैमाने पर अभियान चलाया है। सिनेमा चूंकि  संवाद का सबसे प्रभावी माध्यम है इसलिए घर में शौचालय की वकालत करते हुए कोई फिल्म बने तो उम्मीद की जानी चाहिए कि यह स्वच्छता अभियान के प्रति समाज को जागरुक करने में सहायक होगी। अक्षय कुमार अभिनित हालिया फिल्म ’टाॅयलेट- एक प्रेम कथा’ इस दिशा में एक सफल प्रयास है।
    ’टाॅयलेट- एक प्रेम कथा’ मूलतः तो एक प्रेम कहानी ही है, जिसे शौचालय की उपयोगिता की पृष्ठभूमि में रचा गया है। केशव (अक्षय कुमार) की उम्र 36 साल हो चुकी है, लेकिन उसके अंधविश्वासी पिता उसाके लिए सही वधू  की तलाश में हैं। केशव को जया जोशी (भूमि पेडनेकर) से प्रेम हो जाता है, लेकिन शादी के बाद घर में शौचालय न होने के कारण वह केशव को छोड़ मायके चली जाती है। इसके बाद की जो कथा है वह फिल्म के शीर्षक से न्याय करती है। जानी-पहचानी एवं साधारण कहानी होने के बावजूद दर्शक की रुचि बनी रहती क्योंकि इसकी पटकथा कसी हुई है। एक के बाद एक दृश्य तेजी से आगे बढ़ते जाते हैं। उपर से चुटीले संवाद बीच-बीच में गुदगुदाते रहते हैं। श्रीनारायण सिंह हैं की बतौर निर्देशक यह उनकी प्रथम फिल्म है। वे अनुभवी संपादक रहे हैं। फिल्म एडिटर के रुप में ‘स्पेशल छब्बीस’, ’बेबी‘, ‘एमएस धोनी- दी अनटोल्ड स्टोरी’ जैसी हिट फिल्में उनके खाते में दर्ज है। वे नीरज पांडेय की टीम से हैं। श्रीनारायण सिंह को इस फिल्म में उनके संपादक होने का लाभ भी प्राप्त हुआ है, फिर भी ’टाॅयलेट- एक प्रेम कथा’ के लिए निर्देशक की कुर्सी पर बैठते ही उनको फिल्म के शूट किए गए दृश्यों से सम्मोहन हो गया। यही कारण है कि फिल्म में दो तीन लंबे सिक्वेंस हो गए हैं, जैसे केशव द्वारा टाॅयलेट का जुगाड़ अथवा जया को वापस लाने की मुहिम आदि। ’हँस मत पगली...’ और वाला गीत कहानी से जुड़ा है, जबकि अन्य गाने अनावश्यक रुप से फिल्म की लंबाई बढ़ाते हैं। फिल्म पंद्रह से बीस मिनट छोटी होती, तो और भी अधिक दिलचस्प बनती।
    संपादन के अतिरिक्त श्रीनारायण सिंह से बतौर निर्देशक और भी चूक हुई है। अनुपम खेर जैसे महान अभिनेता का सदोपयोग नहीं हो पाया है। उनके हिस्से में चंद हास्य दृश्यों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। कहीं ऐसा तो नहीं कि नीरज पांडेय के पसंदीदा कलाकार होने के कारण, खेर साहब को लकी मैस्काॅट के तर्ज पर फिल्म में जगह दी गई हो। क्योंकि नीरज द्वारा निर्देशित किसी भी फिल्म में अब तक उनका सशक्त किरदार रहता है। जीनियस फिल्मकार नीरज की प्रथम फिल्म ’ए वेडनेसडे’ से लेकर स्पेशल छब्बीस, बेबी, ‘एमएस धोनी- दी अनटोल्ड स्टोरी’ तक इस बात की साक्षी हैं। विगत चार-पांच वर्षों में अक्षय कुमार के अभिनय में लगातार निखार आ रहा है, यह बात इस फिल्म से भी सिद्ध होती है। साधारण संवादों को भी वे अपनी भाव-भंगिमा से चटपटा बना देते हैं। पंडित जी के किरदार में सुधीर पांडेय फिट तो हैं, लेकिन थोड़े अतिरेक के साथ। जया जोशी के किरदार को भूमि ने इमानदारी से उतारने का प्रयास किया है, लेकिन उनका किरदार और स्पष्ट हो सकता था। यहां निर्देशक की जिम्मेवारी बनती थी।
प्रेम कथा और शौचालय की उपयोगिता इस फिल्म के मुख्य केन्द्र में है। फिल्मकार ने इसके अतिरिक्त समाज के कई अन्य पहलूओं को भी रेखांकित कर उनको व्यवहारिकता की कसौटी पर कसने की कोशिश की है। इसके व्यापक व सूक्ष्म दृष्टि के लिए श्रीनारायण सिंह की प्रशंसा होनी चाहिए। जैसे यह फिल्म शौचालय के बहाने महिला शिक्षा, स्त्री सशक्तीकरण की भी वकालत करती है। संवादों के माध्यम से यह पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती देती है। सरकारी बाबुओं के टालमटोल रवैये पर तंज कसती है। धर्म के ठेकेदारों द्वारा धर्म की सुविधानुसार व्याख्या पर चोट करती है। यह फिल्म अंधविश्वास की पोल खोलती है। उपरोक्त सारे आयाम इस फिल्म को बहुस्तरीय बनाती है। लेकिन फिल्म में इतनी सारी चीजें होने के बावजूद श्रीनारायण सिंह को वाकओवर नहीं दिया जा सकता। पटकथा, संगीत के अलावा जो कथा है, उसमें ग्रामीण भारत के समस्याओं का अतिरेक है। यह सत्य है कि आज भी देश में महिलाओं के साथ भेदभाव या कहीं-कहीं दोयम दर्जे का व्यवहार होता है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि महज शौचालय के लिए समाज में किसी महिला को विलेन की भांति प्रस्तुत किया जाता हो। फिल्म को नाटकीयता प्रदान करने के लिए थोड़े से अतिरेक को सहन किया जा सकता है।
फिल्म में इतने उपदेशात्मक संदेश होने के बावजूद यह दर्शकों को अधिकांश समय बांधे रखती है, यही इस फिल्म की सफलता है। इसके लिए फिल्म निर्माण की पूरी टीम बधाई की पात्र है। कई राज्यों में इसे कर मुक्त किया गया है। झारखण्ड के एक जिले में जिला प्रशासन द्वारा पंचायत प्रतिनिधियों को सिनेमाघर ले जाकर यह फिल्म दिखायी गई है।


-  प्रशांत रंजन                    

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